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उपसंहार
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कहानी, आख्यान का सहारा लिया और शालिभद्र, धन्ना, श्रेणिक जैसे उदार चरित वाले श्रेष्ठियों, श्रावकों, श्रीमंतों और सम्राटों की कथाओं को दृष्टान्त रूप में विविध छंदों, अलंकारों, ढालों, राग-रागनियों से सजा कर सरस रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने कोरा सिद्धान्त कथन करने के बजाय साहित्य रचना का सफल प्रयास किया। यह अवश्य है कि उनकी रचनाओं में प्रायः सर्वत्र शान्तरस प्रधान रस है और प्रधान चरित्र आध्यात्मिक या धार्मिक पुरुष ही हैं। ___ अधिकतर जैन कवि साधु हैं, थोड़े से श्रावक और गृहस्थ भी हैं किन्तु वे भी रीतिकालीन कवियों की तरह दरबारी या आश्रित कवि नहीं हैं। इसलिए वे किसी आश्रयदाता की कुत्सित या विकत रुचि के आग्रह पर अश्लील साहित्य की रचना में प्रवृत्त नहीं हए हैं और उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा साहित्य की ऐसी धारा प्रवाहित की जिसने देश के नैतिक स्वास्थ्य को पतित होने से बचाने में महत्वपूर्ण योगदान किया। संपूर्ण जनसाहित्य जिन आचार्यों, साधुओं द्वारा निर्मित हैं वे पञ्चपरमेष्ठियों में आते हैं। अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु-ये पञ्चपरमेष्ठी माने गये हैं। इनमें से अर्हत् और सिद्ध तो सकल परमात्मा और मुक्तात्मा ही होते हैं। वे तीर्थंकर या मोक्ष में विराजमान सिद्ध होते हैं। ये दोनों सर्वोच्च परमेष्ठी हैं। शेष तीन परमेष्ठियों-आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं ने ही अपने प्रवचन, बिहार और साहित्य सृजन द्वारा अर्हत् और सिद्धों का सन्देश सर्वत्र फैलाया है। आचार्य ३६ मूल गुणों का पालन करने वाले प्रायः संघ प्रमुख होते हैं, वे स्वयं व्रतों का पालन करते और अन्यों से करवाते हैं। उपाध्यायों का प्रमुख कार्य शास्त्राध्ययन करना - कराना है, वे संघ में शिक्षक का कार्य करते हैं। उपाध्याय वही साधु हो सकता है जो साधु चरित का पूर्ण रूप से पालन करता हो। जिनदीक्षा में प्रवृत्त और २८ मूल गुणों का पालन करने वाले सर्व साधू होते हैं। इस तरह इन आचारवान साधुओं द्वारा ही अधिकतर जैनसाहित्य निर्मित हैं और वे साहित्य के माध्यम से जनसाधारण में आदर्श जीवन चरित्र के निर्माण की प्रेरणा में ही प्रवृत्त दिखाई पड़ते हैं। इन्होंने सदैव लोककल्याणकारी और धर्म प्रवण साहित्य की रचना लोक भाषा और लोक प्रयुक्त ढालों, देशियों या रागरागनियों तथा सरस छंदों और पद्यों में की है। उन्होंने साहित्य को लोक भाषा के बहते नीर में प्रक्षालित कर उसे सदैव
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