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________________ ६२० मरु गुर्जर जैन साहित्य का वृहद् इतिहास कि मानवता चरित्र और धर्म की मर्यादा पर टिकी है। श्रद्धा और भक्ति नामक अपने प्रसिद्ध निबन्ध में उन्होंने इस तथ्य को पूष्ट किया है। धर्म से लोक और परलोक दोनों को सुधारा जा सकता है इसलिए हिन्दी जैन साहित्य यदि लौकिक जीवन में सदाचार का पालन करते हुए पर लोक सुधारने का संदेश देता है तो उसे त्याज्य कैसे कहा जा सकता है। साम्प्रदायिक साहित्य में धार्मिक कट्टरता, बाह्याडम्बर, रूढ़िग्राहिता, क्रिया काण्ड और अन्य धर्मों-सम्प्रदायों का खंडन आदि प्रधान रूप से होता है किन्तु कर्मवाद, अनेकान्तवाद, अहिंसा, अपरिग्रह आदि अपने सिद्धान्तों के कारण जैन लेखक इन दुराग्रहों से प्रायः मुक्त रहे हैं इसलिए उनका साहित्य कहीं नीरस, शुष्क भले हो सकता है पर एकाध अपवादों को छोड़कर कट्टर साम्प्रदायिक कदापि नहीं कहा जा सकता। विशाल जैन साहित्य जैन दर्शन के प्रमुख चार स्तम्भों-कर्मसिद्धान्त, अनेकान्त या स्याद्वाद, चारित्र्य और अहिंसा पर टिका है। कर्म सिद्धान्त की स्पष्ट घोषणा है कि जीव को सुख-दुख, बन्धन-मुक्ति सब उसके कर्मानुसार ही प्राप्त होता है। वे किसी ऐसे ईश्वर को नहीं मानते जिसके भरोसे हाथ पर हाथ "रख कर बैठे रहने और उसकी कृपा की याचना करने मात्र से सभी फल प्राप्त हो जाय । जो जैसा करता है वैसा अच्छा या बुरा फल अवश्य पाता है। यह सिद्धान्त मनुष्य को अजगरी या पंछि वत्ति से उबारकर पुरुषार्थी, स्वाश्रयी और कर्मवादी बनाता है। परिणामतः प्रत्येक व्यक्ति सत्कर्म और सत्चरित्र के प्रति सचेष्ट होता है। इससे समाज में श्री, शांति और सुख की वृद्धि होती है। जैन समाज इसका उदाहरण रहा है। ____ अहिंसा में अटूट विश्वास होने के कारण जैन साधु वाणी से भी किसी की हिंसा नहीं करना चाहते । इसलिए वे एकान्तवादी, दुराग्रही, कट्टरपन्थी नहीं होते। वे दुराग्रहपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहकर उसे ही सही और परपक्ष को गलत सिद्ध करने के लिए वाणी का दुरुपयोग करने में विश्वास नहीं करते। इस प्रकार अहिंसा के मूल तत्व पर आधारित वे अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी आदि सिद्धांतों का अनुगमन करते हैं। सदाचार, दया, त्याग, करुणा, मैत्री, अपरिग्रह आदि का पालन करते हुए निर्जरा और संवर की स्थितियों को पार कर मुक्तावस्था तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। दर्शन के इन सिद्धान्तों को काव्यात्मक रूप देने के लिए जैन साधु-कविकों ने कथा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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