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उपसंहार मात्रा में मिलते हैं और जिनके आधार पर उसे कोरा साम्प्रदायिक साहित्य कह कर शुद्ध साहित्य की कोटि से अलग नहीं किया जा सकता। जैन साहित्य का मुख्य लक्ष्य व्यक्ति और समाज का उन्नयन, उदात्तीकरण और उनमें सुख, शांति और संयम का संचार करना है। १७वीं शताब्दी का हिन्दी जैन कवि रीतिकालीन अश्लीलताओं से बचते हुए सदाचार, संयम और आत्मबल तथा मुक्ति का संदेश जन-जन तक पहुँचाने का प्रयत्न करता हुआ दिखाई पड़ता है।
इसका यह तात्पर्य नहीं कि जैन साहित्य ने परलोक की चिन्ता के आगे इहलोक की उपेक्षा की और युगीन भावनाओं, आकांक्षाओं और समस्याओं की तरफ से सर्वथा उदासीन रहा। इन जैन संत. कवियों की रचनाओं में धार्मिक कट्टरता, साम्प्रदायिकता, अश्लीलता तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जोरदार आवाज उठाई गई, साथ ही शासकों के अत्याचार, निरीह प्रजा के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ भी सशक्त ढंग से लिखा गया। सारांश यह कि इनका अध्यात्मवाद वैयक्तिक होते हुए भी बहुजनहिताय की भावना से अछूता नहीं है। इसलिए शलाकापुरुषों का श्रेष्ठ चरित, आचरण की पवित्रता और आध्यात्मिक जीवन का संदेश जैन साहित्य का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहा है। इन्हीं विषयों की अभिव्यन्जना में जैन कवियों ने अपनी कला का परिचय दिया है । निःसंदेह इनमें अधिकतर उपदेश वृत्ति की प्रधानता दिखाई पड़ती है और जहाँ लेखक कवि न होकर मात्र उपदेशक रह गया है वह रचना साहित्य के मानदण्डों की दृष्टि से चिन्त्य है और इसीलिए प्रायः जैन साहित्य के अधिकतर इतिहास ग्रन्थ इतिवृत्त संग्रह बन कर रह गये हैं क्योंकि उनमें युगानुरूप भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का परिचय न मिलने से काल विभाजन आदि का कोई ठोस आधार नहीं मिल पाया है, किन्तु, भारतीय इतिहास, सामाजिक रीति-रिवाज, विविध वर्गों की आर्थिक स्थिति और राजनीति सत्ता परिवर्तन आदि का प्रामाणिक विवरण इन रचनाओं में उपलब्ध होने के कारण ये इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण है साथ ही पुरानी हिन्दी, जूनी, गुजराती और मरुभाषा के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से इनका अध्ययन अनिवार्य है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्यक्ति और समाज को हितोपदेश की सदैव आवश्यकता रही है और हिन्दी जैन साहित्य ने इस दायित्व का निर्वाह बखूबी किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल स्वयं यह मानते हैं
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