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उपसंहार
किसी साहित्य का इतिहास लिखते समय लेखक को यह देखना आवश्यक होता है कि उस साहित्य का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, व्यक्ति की विविध अनुभूतियों और समाज की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं। हिन्दी जैन साहित्य पर विचार करते समय हमें सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और उसे पूर्णतया साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र मान कर शुद्ध साहित्य की कोटि से एक बारगी खारिज नहीं कर देना चाहिए। यद्यपि यह भी कुछ हद तक ठीक है कि हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास लिखते समय इस बात की आशंका अधिक है कि वह कोरा इतिवृत्त संग्रह बन कर रह जाय और 'इतिहास' की संज्ञा का अधिकारी न बन पाये क्योंकि हिन्दी जैन साहित्य का सम्बन्ध निर्विवाद रूप से जैन धर्म के साथ है। वह किसी भी युग में धर्म, दर्शन, अध्यात्म का पल्ला नहीं छोड़ता। सच पूछा जाय तो जैन साहित्य की नींव ही धर्म पर टिकी है। इसने उस समय भी धर्म का पल्ला नहीं छोड़ा जब प्रायः समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य पर रसराज शृङ्गार का आधिपत्य हो गया था। हिन्दी में देव जैसे कवि निःसंकोच घोषणा कर रहे थे 'जोग हूँ ते कठिन संजोग पर नारी को।' हिन्दी में रीति काल की दो सौ वर्षों की अवधि का साहित्य शृगार रस, नायक-नायिकाभेद, नख-शिख वर्णन या राधाकृष्ण के बहाने परकीया प्रेम के प्रसंगों से भरा पड़ा है। शृंगाररस की अमर्यादित धारा भक्ति और मर्यादा के कूलों को तोड़ती हुई समाज को कुत्सित वासना से सराबोर कर रही थी। इसे हम किसी मानदण्ड पर स्वस्थ साहित्य नहीं कह सकते। भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल है जिसका धर्म, दर्शन, अध्यात्म से प्रगाढ सम्बन्ध है। सच पूछा जाय तो धर्म, दर्शन का साहित्य से अविच्छेद्य सम्बन्ध है, किन्तु केवल धर्म, दर्शन
और अध्यात्म ही साहित्य नहीं होता। उसे सरस, लोकरंजक भी होना आवश्यक है। इस दृष्टि से विचार करने पर समग्र हिन्दी जैन साहित्य को शुद्ध साहित्य की सीमा में रखना संभव नहीं लगता, फिर भी इतनी प्रचुर रचनायें उपलब्ध हैं जिनमें साहित्यिक तत्त्व भरपूर
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