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________________ ६१२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का वृहद् इतिहास सयल जिणेसर पयन मेवि सरसति समरेवि, गणहर गोयम सामिनाथ नित चित्त धरेवि । सोभाग सुन्दर नित पुरंदर सुरगणे जिन अलंकरिउ, तिम जपु तेजरत्न मुनिपति सयण संघ परिवरिउ ।' अन्त गधसाहित्य वि० १७वीं शताब्दी के गद्य लेखकों में एक ओर मरुगुर्जर को प्राचीन भाषा-शैली के प्रयोग और दूसरी ओर खड़ी बोली की नवीन भाषाशैली के प्रयोग के प्रति रुझान समान रूप से दिखाई पड़ती है। इन दोनों शैलियों में व्रज भाषा के बढ़ते प्रभाव के कारण उसके शब्दप्रयोग भी मिले-जुले मिलते हैं। यह शताब्दी गद्य लेखन की दृष्टि से भी जैन साहित्य का सम्पन्न काल है। इस युग के प्रसिद्ध कवियों में से कुछ ने गद्य भी लिखा है। उनकी गद्य रचनाओं का विवरण यथासंभव उनकी पद्य रचनाओं के साथ ही इस खण्ड में देने का प्रयत्न किया गया है, फिर भी कुछ अज्ञात लेखकों की अच्छी गद्य रचनाओं तथा कुछ ज्ञात लेखकों की भूली-भटकी रचनाओं की चर्चा छूट गई है, उनका विवरण यथाक्रम आगे प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जा रहा है। प्रसिद्ध कवि बनारसीदास के गद्य में उक्त दोनों शैलियों का नमूना मिल जाता है। इनकी रचनाओं में खड़ी बोली के विपुल प्रयोग पाये जाते हैं, यथा - बरस एक जब पूरा भया, तब बनारसी द्वार गया ! यह तुकबद्ध गद्य भी है और पद्य भी। इस भाषा शैली को समृद्ध बनाने के लिए बीच-बीच में मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों का प्रयोग भी किया गया है, यथा-- जैसा काते तैसा बुनै, जैसा बोवै तैसा लुनै । अथवा शुद्ध गद्य की यह पंक्ति, 'कहते बनारसी तथापि मैं कहूँगा कुछ, सही समझेगे जिनका मिथ्यात्व मुआ है। इसमें कर्ता, क्रिया और सर्वनाम आदि खड़ी बोली के प्रयुक्त हैं। इनकी प्राचीन शैली का एक नमूना परमार्थ वचनिका से देखिये -अथ परमार्थवचनिका १. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय (सं० जिनविजय मुनि) पृ० २११ ।। २. कामता प्रसाद जैन -हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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