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हंसराज
अन्त
नर नारी नित जे गुणइ मा०, रत्नशेषर नृप रास, नवनिधि तेह धरि संपजइ अमा०, सरसति पूरओ आस । सासनदेविय सानधि अमा०, बोलइ हंसरतन,
पूरि मनोरथ मनतणा ओ मा० थंभण पास प्रसन्न ।' आपकी किसी अन्य रचना का पता नहीं चल पाया है । हंसराज I--आप तपागच्छीय हीर विजयसरि के शिष्य थे ।' आपकी दो रचनायें प्रकाशित हैं, १. (महावीर) वर्धमान जिन (पंचकल्याणक) स्तव (१०० कड़ी सं० १६५२ से पूर्व) आदि--. .
सरसति भगवति दिउ मति चंगी, सरस सुरंगी वाणि, तुझ प्रसादे माय चित्तधरहूं जिनगुण रयणनी खाणि ।। गिरुआ गुण वीरजी गाइस त्रिभुवनराय, जस नामें घरि मंगलमाला चित्त धरें बहु सुखथाय । इय वीर जिनवर सयल सुखकर नामें नवनिधि संपजे, घरें ऋद्धि वृद्धि सिद्धि पामें, अॅकमन जिनवर भजे । तपगच्छ ठाकुर गुण विरागर हीरविजय सूरीश्वर,
हंसराज वंदे मन आणंदे, कहे धन मुझ अह गुरु ।। यह रचना 'चैत्य आदि संज्झाय' और अन्यत्र भी प्रकाशित हैं।" आपकी दूसरी रचना 'हीरविजयसूरिलाभ प्रवहण संझाय ७२ कड़ी की है और खंभात में रची गई थी। यह 'जनयुग' पुस्तक संख्या ५. ज्येष्ठ-श्रावण सं० १९८७ अङ्क में प्रकाशित है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
प्रथम जिणेसर मनि धरुं समरूं सरसति माय, गुण गाऊं तपगछपती, जास नामि सुख थाइ। खंभनगरनु संघ वइरागर, पंचविधि दानदातार, कनकचीर सोनहरी गंठोडा, वरसइ जिम जलधार रे, जिहां जिहां गुरुनी आज्ञा वरतइ, तिहां तिहां उत्सव थावइ,.
दिन दिन चढ़तइ रंग सोहावइ, हंसराज गुण गावइ रे ।। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १५०६-७ (प्रथम संस्करण) और
भाग ३ पृ० १७७ (द्वितीय संस्करण) २. वही भाग ३ पृ० ८०५-६ (प्रथम संस्करण)' और भाग २ प० २७७
(द्वितीय संस्करण) ३. वही
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