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________________ आणंदवर्द्धनसूरि - आणंदविजय इस प्रकार वे सत्रहवीं शताब्दी ही नहीं समूचे जैन काव्य जगत के श्रेष्ठ अध्यात्मवादी कवि प्रमाणित होते हैं । आनन्दघन के सन्दर्भ में 'आनन्दघन का रहस्यवाद' नामक पुस्तक जो पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी से प्रकाशित है, द्रष्टव्य है। आणंदवर्द्धन सूरि - आप खरतरगच्छीय धनवर्द्धन के शिष्य थे। आपने सं० १६७८ में 'पवनाभ्यास चौपइ'१ की रचना की थी। श्री अगरचन्द नाहटा इनका रचना काल सं० १६०८ मानते हैं । वे इनकी गच्छ-शाखा का ठीक पता-ठिकाना नहीं बताते, किन्तु देसाई इन्हें खरतरगच्छीय मानते हैं जो निम्नांकित पंक्तियों से स्पष्ट होता है यथाआदि-आदि सगति सेवं सारदा, कवियण वाणी मति सारदा करुणासागर मन सारदा, अहनिसि नवि छांडु सारदा । गुरुपरम्परा-- खरतरगच्छ नायक सूरीस, श्री घनवर्द्धन नु जे सीस, आणंदवर्द्धन करइ जगीस, बड़ी बात लहिवा जगदीस। कवि ने रचना काल इस प्रकार बताया है कि सं० १६०८ और १६७८ दोनों अर्थ सिद्ध होते हैं यथा-- संवत सोल अठोतर वरसि, आसोमासि रचिउं मन हरसि, सुणिवु भणवू महापुरिस, अठम ध्यानि आरूढ़इ तरसि । कर्म निकाचित जाई दूरि, अनंत भव ऊतरीई पूरि। अहवु तत्व न जाणि भूरि, इम कहइ आणंदवर्द्धन सूरि ।१२७. भाषा-भाव की दृष्टि से ये साधारण कोटि के कवि प्रतीत होते हैं। आपकी भाषा पर मरुवाणी का प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है। आणंदविजय-आप की एक रचना 'श्री विमलकीर्तिगुरु गीतम्' 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में संकलित है। यह छह कड़ियों की रचना रागधन्याश्री में आबद्ध है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार है :-- "शिष्य शाखा प्रतपउ रवि चंदा, जा लगि मेरु ध्रुचंदा वे। आणंदविजय इम गुण गावइ, चढ़ती दउलति पावइ वे ।६।" १. श्री अगर चन्द नाहटा---परम्परा पृ० ८७ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ खंड १ पृ० १०००-१००१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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