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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मधुर भाव और प्रपत्ति की सुन्दर झलक इन पंक्तियों में द्रष्टव्यः
मैं आई प्रभु सरन तुम्हारी, लागत नाहिं धको।
भुजन उठाय कहूँ औरन सुकरहुँ ज करही सको। अथवा, वारे नाह संग मेरो, यूं ही जोबन जाय
ए दिन हसन खेलन के सजनी, रोते रैन विताय या, अब मेरे पति गति देव निरंजन
___ भटकू कहाँ-कहाँ सिर पटकू, कहाँ करुं जनरंजन । आदि ये सभी उदाहरण निर्गुण भक्तों की अध्यात्मवादी भावधारा के पर्याप्त निकट लगते हैं।
नाथ सिद्धों की तरह वे चेतना को उद्वोधित करते हुए कहते हैं-- क्या सोवे उठ जाग बाउरे । अंजलि जल ज्यं आयु घटत है, देत पहोरिया घरिय घाउरे । इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र मुनींद्र चल, कोण राजापतिसाह राउरे । भमत भमत जलनिधि पायके, भगवंत भजन बिन भाउनाउरे । कहा विलंब करे अब बाउरे, तरी भव जलनिधि पार पाउरे । आनन्दघन चेतनमय मूरति, शुद्ध निरंजन देव ध्याउरे ।
कबीर के प्रसिद्ध पद 'अरे ! इन दोउन राह न पाई' के समान वे भी अवधू को सम्बोधित करके कहते हैं
अवधू नटनागर की बाजी, जाणे न बाभन काजी। थिरता एक समय में ठाने, उपजे विणसे तबही,
उलट पुलट ध्रुवसत्ता राखे, या हम सुनी न कबही । इसी में सप्तभंगी न्याय का उदाहरण भी देते हैं, यथा
एक अनेक अनेक एक पुनि कुंडल कनक सुभावे जलतरंग घट माटी रविकर अगणित ताहि समावे है, नाही है, वचन अगोचर, नयप्रमाण सत्तभंगी, निरपख होय लखे कोइ विरला क्या देखे मतजंगी। सर्वमयी सरवंगी माने, न्यारी सत्ता भावे ।
आनन्दघन प्रभुवचन सुधारस परमारथ सो पावे ॥१. १. आनन्दघन पद संग्रह
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