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आनन्दघन
की बृहद् विवेचना के साथ यह 'आनन्दघन पद संग्रह' नाम से अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसमें पद संख्या १०० से ऊपर है यद्यपि प्रारम्भ में – जैसा नाम से स्पष्ट हैं- -- पद संख्या ७२ ही रही होगी । बुद्धिसागर ने मिश्रबन्धु विनोद के आधार पर इसका रचनाकाल सं० १७०५ माना है ।
आनन्दघन का भक्तिभाव - भक्ति के सम्बन्ध में आपका विचार है कि भगवान के चरणों में निरन्तर लौ लगी रहे । संसार के सब काम करते हु भी यदि मन भगवान के चरणों में लगा रहे तभी वह भक्त है । वे गाय, पनहारिन, नट आदि के उदाहरण द्वारा अपनी बात को स्पष्ट करते हैं । गाय के बारे में वे लिखते हैं- गाय कहीं चरे पर ध्यान बछरू पर लगा रहता है ।
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यथा - उदर भरण के कारणे रे गउवाँ बन में जाँय,
चारो चरें चहुंदिसि फिर, बाकी सुरत बछरुआ मांय । इसी प्रकार, सात पाँच सहेलियाँ रे हिलमिल पाणीड़े जाँय, ताली दिये खलखल हंसै, बाकी सुरत गगरुआ मांय । इसी प्रकार शरीर के क्रिया व्यापार भले कहीं हों पर उनके चरणों में एकाग्र रहना चाहिये । भक्ति के लिए लघुता प्रदर्शन की भी आवश्यकता मानी गई है; वे कहते हैं -
निशदिन जोउ तारी बाटडी घरे आवो रे ढोला । मुझ सरिखा तुझे लाख हैं, मेरे तुहीं अमोला ।
अखण्ड सत्य में अडिग विश्वास ही भक्ति का लक्षण है । उसको
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राम रहीम, महादेव, पार्श्व, महावीर कुछ भी कहो, आनन्दघन को इससे कोई आपत्ति नहीं है
यथा, राम कहो, रहमान कहो कोउ कान्ह कहो महादेव री, पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजनभेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री, तैसे खण्ड कल्पना रोपित आप- अखण्ड सरूप री । ' सच्चे भक्त के हाथों भगवान बिक जाता है
व्रजनाथ से सुनाथ विण, हाथो हाथ विकायो, विच को कोउ जनकृपाल, सरन नजर न आयो । १. डा० प्रेमसागर जैन -- हिन्दी भक्तिकाव्य पृ० २१० पर उद्धृत
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