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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास या खरतरगच्छीय थे । इसीलिए किसी गच्छवाल लेखक ने उनका उल्लेख नहीं किया है। क्षितिमोहनसेन उनके ऊपर मध्ययुग के मरमिया सहजवाद का प्रभाव मानते हैं, उनके भाव कबीर, दादू, रज्जब आदि से मिलते हैं। 'आनन्दघनबहत्तरी' इन्हीं आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत रचना है। इसमें शांतरस का मर्मस्पर्शी अभिव्यन्जन हुआ है। इन्होंने चेतना को आत्मानन्द की ओर प्रवृत्त किया है। अपने साहित्य द्वारा इन्होंने जीवों को लोकसंग छोड़कर वनवास, एकान्तवास द्वारा आत्मचिंतन का संदेश दिया है । इन्होंने हिन्दी-गुजराती मिश्रित (मरुगुर्जर) भाषा शैली में २४ जिनों की स्तुति में २४ स्तवन (चौबीसी) लिखी है। ऐसी उत्तम चौबीसी प्रायः समस्त जैन साहित्य में दुर्लभ है। इस चौबीसी में अन्तरात्मा और बहिरात्मा और परमात्मा तथा अन्य आध्यात्मिक प्रसंगों पर यथास्थान गढ़ विवेचन सुबोध ढंग से किया गया है। आनन्दधनबहोत्तरी में भक्ति, वैराग्य से प्रेरित आध्यात्मिक रूपक, अन्तज्योति का आविर्भाव और प्रेरणामय उल्लास का भाव व्यक्त हुआ है। चाहे यशोविजयजी की इनसे भेंट हई हो या न हई हो किन्तु वे इनसे बहुत प्रभावित थे। उन्होंने 'आनन्दघन अष्टपदी' में आनन्दघन के काव्यत्व और साधना पक्ष की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।
आनन्दघन या घनानन्द नाम के चार कवि मध्यकाल में मिलते हैं। इनमें से प्रथम सुजान के प्रेमी प्रसिद्ध रीतिमुक्त कवि घनानन्द से सभी हिन्दी पाठक परिचित हैं। दूसरे प्रसिद्ध अध्यात्मवादी जैन कवि प्रस्तुत महात्मा आनन्दघन का जीवनवृत्त अधिक ज्ञात नहीं है। तीसरे आनन्दघन' नंदगाँव निवासी थे जिनकी भेंट चैतन्य से हुई थी। वे १६वीं के मध्य हो गये थे। चौथे कोकमंजरी के कर्ता घनानन्द को और हिन्दी के घनानन्द को लोग एक ही मानते थे पर वे भी भिन्न व्यक्ति सिद्ध हो चुके हैं। महात्मा आनन्दघन की प्रसिद्ध रचना 'चौबीसी' का समय पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने सं० १६७८२ और झाबेरी ने सं० १६८७ माना है। इसपर यशोविजय, ज्ञानविमल और ज्ञानसार ने बालावबोध व टब्बा लिखा है। चौबीसी को भीमसिंह माणिक ने प्रकाशित किया है। बहोत्तरी के कई प्रकाशन हो चुके हैं । श्री बुद्धिसागर १. पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, ना० प्र० पत्रिका वर्ष ५३ अंक १ नंदगाँव
के आनन्दघन पृ० ४९ २. पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र-आजकल, जुन १९४८ 'आनन्दघन का
निधन संवत'
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