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आणंद - आनंदघन
संवत् सोल साठि शुभ अब्दे, शुभ मुहुर्ते शुभ बेलि
नगर नगीने मे थुति कीधी संभालि दोइ कर मेलि ।' यह रचना भक्त के आग्रह पर की गई जैसा इन पंक्तियों से स्पष्ट है :
"जिन शासनी ठाकुर लखू नामिइ जय तू विहारीदास, एह तणे प्रार्थने कीधी, आणी चित्त उल्हास, धन धन श्री जिनशासन भुवनिइं, धनधन की जिनवाणि,
राजै त्रिणि भुवन भासंती, लहीये पुण्य प्रमाणि ।' प्रति प्राप्ति विवरण-८-१३ नं० ३०० बीजापुर जैन ज्ञानमंदिर ।
महात्मा आनन्दधन-(सं० १६७२ से सं० १७४०) इनके बचपन का नाम लाभानन्द था, श्री के० एम० झावेरी इन्हें लाभविजय भी कहते हैं। मनसुखलाल रजनीभाई मेहता इनकी भाषा के आधार पर इन्हें गुजराती बताते हैं । आचार्य क्षितिमोहन सेन इन्हें राजस्थानी सिद्ध करते हैं । उनका तर्क है कि गेय पदों की भाषा को आधार मानकर किसी का मूलस्थान निश्चित नहीं किया जा सकता क्योंकि गानेवालों द्वारा गीतों की भाषा में परिवर्तन होता रहता है। उनका अन्तिम समय मेड़ता (राजस्थान) में बीता था। मेड़ता में ही उनकी भेंट प्रसिद्ध उपाध्याय यशोविजयजी से हई थी। आचार्य क्षितिमोहनसेन ने लिखा है 'मेड़ता नगर में आनन्दघन के साथ यशोविजय जी ने कुछ समय बिताया था। इसलिए ये दोनों समसामयिक हैं । आनन्दघन उम्र में कुछ बड़े हो सकते हैं अतएव संभव है कि सं० १६७२ के आसपास उनका जन्म और १७३५ के आसपास देहावसान हुआ हो।३ श्री नाथूराम प्रेमी इनकी यशोविजय से भेंट संभव नहीं मानते किन्तु वे भी इनका समय वि० १७वीं शताब्दी का मध्यभाग मानते हैं । आनन्दघन उदार विचारों के संत थे । वे किसी संकुचित साम्प्रदायिक सीमा में आबद्ध नहीं थे अतः यह नहीं कहा जा सकता कि वे तपा १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ खंड १ पृ० ८८१-८८ २. K. M. Jhaberi-Mile stones in Gujarati Lit P. 139. ३. आ० क्षितिमोहन सेन 'जैन मरमी आनन्दघन का काव्य' वीणा अंक १
नवम्बर १९३८ पृ० ८ ४. श्री नाथूराम प्रेमी-अर्द्धकथानक (प्र० बम्बई) पृ० ११६-११७
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