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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १६५७ में की। इनके गुरु के सम्बन्ध में कहीं विजयसेन, कहीं कल्याणविजय और कहीं-कहीं कमल विजय नाम भी मिलता है। इसलिए यह संभव है कि कथारत्नाकर' के लेखक हेमविजय और कमलविजयरास के लेखक हेमविजय एक ही व्यक्ति हों। यदि ऐसा हो तो आप अच्छे कवि और श्रेष्ठ कथाकार भी माने जायेंगे किन्तु इस दिशा में पर्याप्त शोध की अपेक्षा है।
• हेम श्री (साध्वी)-बडतपगच्छीय धनरत्न के शिष्य अमररत्न और प्रशिष्य भानुमेरु थे। आप इन्हीं भानुमेरु के शिष्य नयसुन्दर की शिष्या थी। आपने सं० १६४४ वैशाख कृष्ण ७ मंगलवार को ३६७ कड़ी की विस्तृत रचना 'कनकावती आख्यान' लिखा, जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नवत् हैं--
सरसति सरससकोमल वाणी रे, - सहि गुरु केरी सेवा पांमीरे ।
श्री जीनचरणे सीस ज नामी रे, सेवक ऊपरि बहु हीत आणी रे।' सेवापांमी सीस नांमी गांऊ मनइ ऊलट घणइ, कथा सरस प्रबंध भणसु, सूजन मनइ आणंद नी। कनकावती नी कथा रसीली चतुरनां चतरंजनी,
वैद्यक रस कस गुणी नर जे तेहनां मनमोहणी। इसमें उपरोक्त गुरुपरंपरा दी गई है। रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है--
संवत सोलह चुआलइ संवच्छरि, वैशाष वदि कुजवार, सातमइ दनि सूभ मुहरतइ योगइ, रचउ आख्यान से सार। भणइ गुणइ सांभलि जे नरि, तेह घरि मंगलच्यार,
हेम श्री हरषइ ते बोलइ, सूख संयोग सूसार ।' जीन, (जिन), हीते, (हित) चत (चित), दनि (दिन), सूभ (शुभ) सूजन (सुजन) आदि अशुद्ध प्रयोगों की भाषा में भरमार है। रचना सामान्य कोटि की है। कनकावती की कथा के माध्यम से नारी के शील का माहात्म्य दर्शाया गया है। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ८८२ (प्रथम संस्करण) २. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० २८६, भाग ३ पृ० ७७७(प्रथम संस्करण)
और भाग २ पृ० २३०-२३१ (द्वितीय संस्करण)
अन्त
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