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हेमविजय गणि
५९७ दो बार सम्राट अकबर मिला और जगद्गुरु की पदवी दी, इसी प्रकार विजयसेन से भी सं० १६५० में मिला और 'सवाई' विरुद प्रदान किया। इसलिए इनका प्रभाव गच्छ में अत्यधिक बढ़ गया था। हेमविजय ने संस्कृत के अतिरिक्त मरुगुर्जर में भी इन दोनों पर कई स्तुति-स्तवन लिखा था। मिश्र बन्धु विनोद में इनके सं० १६६६ के बनाये कुछ ऐसे पदों का उल्लेख मिलता है।' नेमिजिन चंद्रावला का अन्तिम छन्द इस प्रकार है--
तपगछ मंडण हीरलोरे, हीरविजय मुनिराज, नाम जपतां जेहनूरे सीझे सगला काज । सीझे सगला काज, सीझेसगला काज नी कोडी, तेहने नमे सदा कर जोड़ी।
पंडित कमलविजयनो सीस, हेमविजयमुनि द्यो आसीस ।' आप नेत्रहीन थे अतः सूरदास की तरह आपके पदों में मार्मिक स्वानुभूति झलकती है उदाहरणार्थ नेमिनाथ पद की निम्न पंक्तियाँ देखिये
घनघोर घटा उनयी जुनई, इततै उततै चमकी बिजली, पियुरे पियुरे पपिहा विललाति, जु मोर किंगार करंति मिली। बिच विन्दु परे दृग आंसु झरे, दुनि धार अपास इसी निकली। मुनि हेम के साहब देखन ,
उग्रसेन लली सु अकेली चली। इस पर कृष्ण भक्ति की शृङ्गारी रीति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है और रीतिकाल के एक प्रसिद्ध सवैये से यह पर्याप्त मेल खा रहा है। प्रसिद्ध कवि ऋषभदास ने अपनी रचनाओं-हीरविजय रास, कुमारपाल रास आदि में इनको सादर स्मरण किया है । अत: आप एक प्रतिष्ठित और स्थापित कवि सिद्ध होते हैं। आप संस्कृत एवं मरुगुर्जर (हिन्दी) के अच्छे कवि-साहित्यकार थे।
एक अन्य हेमविजय (ii) ने, जो कल्याण विजय के शिष्य कहे गये हैं, कथारत्नाकर की रचना दस तरंगों २५० गाथाओं में सं० १. मिश्रबन्ध-मिश्रवन्धु विनोद भाग १ पृ० ३६७ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ. ९२ (द्वितीय संस्करण)
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