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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कहत कवि हेम थिर पेम ओ,
श्री गुरो होऊ मह मुहकरो अमिय जी हो।' इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये
. सरस वचन रस वरसती, सरसति कविअण माय, __समरिय नियगुरु गायस्यु पंडित प्रणमिय पाय ।
कवि मे लिखा है कि वह इस रास में 'निअगुरु' अपने गुरु अर्थात कमलविजय की कीर्ति का गान कर रहा है । आगे लिखा है
कमलविजय कोविद तिलक सुविहित साधु सिंगार,
तास रास रलिआमणो, भणतां जय जयकार । नेमिजिन चंद्रावला-(४४ कड़ी) इसमें भी कवि ने अपने को कमल विजय का शिष्य कहा है। आपकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है तपागच्छीय आनन्द विमलसरि की परम्पदा में शुभविमल> कमलविजय के आप शिष्य थे। इन्हें श्री नाथूराम प्रेमी ने हीरविजय का प्रशिष्य
और विजयसेनसूरि का शिष्य बताया था। उसी आधार पर डा० प्रेमसागर जैन और डा० हरीश आदि ने भी विजयसेन का शिष्य लिखा है। हेमविजय ने विजयसेन सूरि की प्रशंसा में 'विजयप्रशस्ति' नामक एक रचना संस्कृत में लिखी है। इन्होंने हीरविजयसरि की स्तुति में भी कई स्तुति, स्तवन संस्कृत में लिखे हैं। इनमें से एक शत्रञ्जय पहाड़ के शिलालेख में टंकित है। इसमें ६७ श्लोक हैं। इन्हीं सबके आधार पर इन्हें विजयसेन का शिष्य मान लिया गया होगा।
वस्तुत. हीरविजयसूरि और विजयसेनसरि अत्यन्त प्रभावशाली सरि थे। आणंदविमल को कोई परम्परा नहीं चली। इसलिए इन्हीं दोनों का नाम अधिक प्रचलित हो गया। हीरविजय से सं० १६३९ में १. ऐतिहासिक रास संग्रह भाग ३ पृ० १३७-१३८ और जैन गुर्जर कविओ
भाग १ पृ० ३९५ (प्रथम संस्करण) और भाग ३ पृ० १-२ (द्वितीय
संस्करण) २. वही ३. श्री नाथूराम प्रेमी-हिन्द जैन साहित्य का इतिहास (१९१७) पृ० ४८ ४. डा० प्रेमसागर जैन--हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० १५६
१५७ ५. डा० हरीश शुक्ल --- जन गुर्जर कवियों की हिन्दी सेवा पृ० १२३
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