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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आदि उल्लेखनीय हैं। गृहस्थों में महाराणा प्रताप, मन्त्री भामाशाह, उनके पुत्र जीवाशाह आदि भी इनसे श्रद्धा रखते थे। इससे ये एक प्रभावक आचार्य और युगपुरुष अवश्य प्रमाणित होते हैं । मरुगुर्जर में रचित आपकी तीन कृतियों का उल्लेख मिलता है। उनका विवरणउद्धरण प्रस्तुत किया जा रहा है। __ द्वादश जल्पविचार अथवा हीरविजयसूरि ना १२ बोल सं० १६४६ पौष शुक्ल १३, शुक्रवार । यह रचना जैन प्रबोध पुस्तक के पृ० ३०० पर प्रकाशित है । इसकी प्रथम पंक्ति है
'अजब ज्योति मेरे जिन की।' अन्त हीरविजय प्रभु पास शंखेसर, आशा पूरो मेरे मन की।
अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ स्तव के अलावा जै० गु० क० भाग १ में इनकी चार कृतियों--
शान्तिनाथरास, द्वादशजल्पविचार, मृगावती और प्रभातिउ का उल्लेख है।
नवीन संस्करण के सम्पादक ने लिखा है कि ये सब रचनायें इनकी नहीं प्रतीत होती । शान्तिनाथरास संभवतः रामविजय मुनि की रचना है। इसी प्रकार मृगावती सकलचंद की कृति मालम पड़ती है। अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ स्तव और द्वादशजल्प विचार इनकी रचनाये हो सकती हैं। प्रभातिउ के कर्ता हीरविजय स्पष्ट ही अर्वाचीन हैं और प्रस्तुत हीरविजयसूरि से भिन्न हैं।
जिस प्रकार किसी भाषा साहित्य के इतिहास में इतनी कम रचनाओं के आधार पर उसके नाम पर उस युग का नामकरण अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है उसी प्रकार उनका उल्लेख ही न करना अन्यायपर्ण लगता है। श्री अगरचंद नाहटा, डा० कस्तूरचंदकासलीवाल, डा. प्रेमसागर जैन और डा० हरीश शुक्ल आदि विद्वानों ने अपने ग्रंथों में इनकी चर्चा भी नहीं की है। यदि रचनायें संख्या में कम होते हुए भी काव्य दृष्टि से काफी उच्चकोटि की हों तो भी इस प्रकार का नामकरण उचित लग सकता है किन्तु आपकी जो दोचार रचनायें हैं वे इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं कि उनके आधार पर १. जैन गुर्जर कवियो भाग १ पृ० २४१ और भाग २ पृ. २३९-२४०
(द्वितीय संस्करण)
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