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हीरविजयसूरि
५८५ अकारण मार पड़ गई। सारांश यह कि उस जमाने में नियम कानून और सुव्यवस्था नामक कोई वस्तु नहीं थी, जिसके कारण साध-सन्तों तक को बड़ी यातनायें भोगनी पड़ती थी। धीरे-धीरे गुजरात में सुव्यवस्था स्थापित हई और जैन साध अपने कठोर संयम और तप के कारण शासकों की दृष्टि में भी सम्मानित समझे जाने लगे।
सम्राट अकबर से भेंट--हीरविजयसूरि ने अनेक संघ यात्राओं का नेतृत्व किया। मन्दिरों का निर्माण और मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई । दूर-दूर तक विहार करके हजारों लोगों को जैन धर्म के प्रति श्रद्धावान् बनाया। धीरे-धीरे इनकी कीर्ति फैलती गई और चंपा नामक श्राविका-जो थानसिंह की मां थी, के छह महीने के उपवास के पारणा का जुलूस देखकर तथा अपने कर्मचारी कमरू खाँ से यह सुनकर कि चम्पा इतना लम्बा उपवास अपने गुरु हीरजी की कृपा से कर पाई, अकबर को भी इनसे मिलने की इच्छा हुई । निमन्त्रण भेजा गया। सरिजी अपने ६७ साधुओं के साथ गान्धार से पैदल चलकर सं० १६३९ में सीकरी पहुंचे तो अकबर बड़ा प्रभावित हआ। आप जगत मल कछवाहा के महल में ठहराये गये । थानसिंह इनकी आगवानी में गये थे। अबुलफजल को इनकी आवभगत में रखा गया था। ज्येष्ठ कृष्ण १३ सं० १६३९ में प्रथम भेंट होने पर बादशाह ने इन्हें बहुत कुछ भेंट में देना चाहा पर इन्होंने कुछ नहीं स्वीकार किया, केवल हिंसा बन्द करने की इच्छा प्रकट की तो बादशाह ने जीव हिंसा की रोक और जजिया की माफी आदि से संबंधित फरमान निकाला। इससे न केवल जैन जगत में बल्कि समग्र भारत में इनकी कीर्ति फैल गई। अकबर की धर्म सभा के १४० सदस्यों में इनका १६वां नाम था । सं० १६३९ में सम्राट इनसे तीन बार मिला और खूब विचार विनिमय किया। इन्हें जगद्गुरु की पदवी दी और विजय सेन को सवाइ विरुद से सम्मानित किया।
रचनायें-इन्होंने सैकड़ों शिष्य बनाये जिनमें मेघजी ऋषि का नाम महत्वपूर्ण है। इनके समकालीन सन्तों में विजयसेनसूरि, विजय. देव सूरि, आनन्द विमलसूरि के अलावा धर्मसागर और विवेकहर्ष १. सम्राट अकबर से सूरिजी सं० १६३९ ज्येष्ठ वदी १३ को फतेहपुर में
प्रथम बार मिले । श्रावण बदी १० को वही दूसरी बार मिले और भाद्र सुदी ६ को वहीं तीसरी बार मिले ।
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