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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पट्टावली में धर्मसागर ने किया है, अतः यह रचना पट्टावली से कुछ पूर्व ही लिखी गई होगी ।) दयाकुशलकृत 'लाभोदयरास' १६४९, विवेकहर्षकृत 'हीरविजय सूरि निर्वाण संज्झाय' १६५२, कुंवर विजयकृत' शलोको, विद्याणंदकृत 'शलोको', जयविजयकृत 'हीरविजयसूरि पुण्यखानि' और ऋषभदास कृत हीरविजयसूरि रास सं० १६८५ आदि उल्लेखनीय हैं। गुजराती भाषा में रचित 'सूरीश्वर अने सम्राट्' इस प्रकार की सर्वाधिक प्रामाणिक कृति है ।
जीवनवृत्त - पालणपुर (गुजरात) के कुंरा नामक ओसवाल इनके पिता और नाथी इनकी माता थीं । इनका जन्म सं० १५८३ मागसर शुक्ल ( ९ ) नवमी को हुआ था । इनका बचपन का नाम हीरजी था । नाथी को इनसे पूर्व तीन पुत्र और तीन पुत्रियाँ थीं । १३ वर्ष की अवस्था में अपनी बहन बिमला के यहाँ जाते समय रास्ते में पाटण में इन्होंने विजयदान सूरि का प्रवचन सुना और उससे बड़े प्रभावित हुए और सं० १५९६ में उन्हीं से दीक्षित हुए। हीर हर्ष से विद्याभ्यास किया । धर्म सागर के साथ देवगिरि में भी आपने शास्त्राभ्यास किया । सं० १६०७ में पण्डित, सं० १६०८ में वाचक और सं० १६१०
सं० १६२८ में
साथ जाकर
में आपको सिरोही में सूरिपद प्राप्त हुआ । आचार्य पद का महोत्सव जैन मंत्री चांगा ने किया । चांगा ने ही राणकपुर के प्रसिद्ध प्रासाद का निर्माण कराया था । सं० १६२१ में विजयदान सूरि के स्वर्गवासी होने पर हीरविजय तपागच्छ के गच्छेश हुए । लोकागच्छ के मेघ जी ऋषि अपने २८-३० साथियों के इनके अनुगामी हो गये, तबसे इनका प्रभाव खूब फैलने लगा । तत्कालीन स्थिति--सं० १६२८-२९ में ही अकबर ने गुजराज पर विजय प्राप्त की थी । उस समय गुजरात में सुबेदार और स्थानीय हाकिमों की नबाबी चल रही थी । खंभात के हाकिम सिताब खाँ से हरदास नामक किसी गृहस्थ ने चुगली की कि हीरविजय आठ साल के बच्चे को साधु बना रहे हैं । उसने इन्हें पकड़ने का हुक्म जारी कर दिया । इसके कारण कई दिनों इन्हें गुप्तवास करना पड़ा। इसी प्रकार वोरसद के जगमल वाले प्रकरण में भी इन्हें कई दिनों तक गुप्तवास करना पड़ा था। एक बार किसी ने शिकायत कर दी कि हीरविजय ने बरसात रोक दी है । शिताब खाँ ने इन्हें पकड़ने के लिए सिपाही भेज दिया । राघव और सोमसागर ने किसी प्रकार बीचबचाव करके छुड़ाया । इसी झंझट में धर्मसागर और श्रुतिसागर पर
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