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हीरविजयसूरि
५८३ हीरनंदन -आप खरतरगच्छीय जिनसिंह सूरि के शिष्य थे। आपने सं० १६७० से ७४ के बीच 'हरिश्चन्द्र चौपाई' की रचना की। इसका आदि देखिये
शुभमति आपो सारदा, सरस बचन सरसति, ब्रह्माणी सहु विघन हरि, भलौ करै भारति । चउवीसे जिनवर चतुर नाम हुवउ नत निधि, श्री गौतम गणधर सधर सदाकरो सांनिधि । xxx खरतर गछनायक बरो जंगम जुगपरधान, श्री जिनसिंह सूरीसरु नमीयइ सुगुण निधान । विनयवंत विद्या निलो गणि हीरनंदन गाय,
गुरु सुपसायइ गायसुं रंगइ हरचंदराय ।' इस प्रति के अंतिम पत्र खंडित हैं, अतः इसके रचनाकाल और रचना सम्बन्धी अन्य विवरण नहीं उपलब्ध हो पाये।
होरविजय सूरि -जिस प्रकार भगवान महावीर ने मगधराज श्रेणिक (बिंबसार) को, हेमचन्द्राचार्य ने जयसिंह और कुमारपाल को, उसी प्रकार विक्रम की १७वीं शताब्दी में हीरविजयसूरि ने सम्राट अकबर को प्रभावित कर धर्म की प्रभावना में महान योगदान किया। सूरि जी इस शताब्दी के न केवल महान् प्रभावक धर्माचार्य अपितु श्रेष्ठ कवि, साहित्यकार एवं सन्त थे। श्री मोहनलाल देसाई ने इस शताब्दी को इनके नाम पर हैरक युग कहा है। इस नामकरण पर चाहे सर्वसम्मति भले न हो किन्तु इतना तो निर्विवाद स्पष्ट है कि आप इस अवधि में तपागच्छ के सर्वाधिक महान् पुरुष थे ।
आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सम्बन्ध में अनेक जैन विद्वानों ने अपनी रचनाओं में काफी लिखा है - जिससे इनका तत्कालीन युग पर प्रभाव स्पष्ट प्रकट होता है। ऐसे ग्रंथों में संस्कृत में लिखित पद्मसागर कृत 'जगत् गुरु काव्य' सं० १६४६, धर्ममागर कृत तपागच्छ पट्टावली सं० १६५६-४८, शान्तिचंद्र कृत 'कृपारसकोश', देवविमल कृत हीरसौभाग्य महाकाव्य (इसका उपयोग अपनी १. जैन गुर्जर कवि ओ भाग १ पृ० ४८१-८२ (प्रथम संस्करण)
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