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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हीरकुशल-तरागच्छीय विमल कुशल के शिष्य थे। आपने सं० १६४० में 'कुमारपाल रास' की रचना अक्कमपुरी में की। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ ये हैं
पय पंकज जस प्रणमता पांमीजी सुररिद्धि, त्रिशलानंदन दुब हरइ नाममात्रि बहु सिद्धि । गजगति सरसति समरता लहीइ वचन रसाल । कवी कोटि सेवा करी निमिलयातमसाल। निज गुरुना हृदये धरी विमलकुशल सुपवित्र,
हीरकुशल कहे कवि जि सुणीउ कुमारपाल चरित्र । अंत- श्री सोमसुन्दर सूरि सीस वाचकवरु,
तेणि करिउ कुमर नृपनउ चरित्र । तेह ऊपरि रचिउ संवत् सोलोत्तरइ,
वर्ष च्यालीस अक्कमपुरि पवित्र ।' गुरु परंपरा के अन्तर्गत आपने हीरविजय, जयविजय, विजयसेन और विमलकुशल का वंदन किया है। इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है
सकल सीद्ध कमलि रमइ भमर परि, वीणि मकरंद पीइ मनह रंगि, हीरकुशल कहि कुमरनृप केरउं,
रास भणतां हुइ आणंद अंगि । इसमें गुजरात के प्रसिद्ध सोलंकी राजा कुमारपाल का चरित्र चित्रित किया गया है।
हीरचंद-तपागच्छीय भानुचन्द्र उपाध्याय आपके गुरु थे । भानुचंद्र प्रसिद्ध जैन विद्वान् थे जो अकबर के समकालीन थे और उसके पुत्र जहाँगीर के शिक्षक भी थे। हीरचंद ने कर्मविपाक (प्रथम कर्मग्रंथ) पर बलावबोध लिखा जिसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
श्री भानुचन्द्र वाचक शिशुनोपाध्याय हीरचन्द्रेण,
कर्मग्रंथस्यार्थों लिखितोयं लोकभाषाभिः ।। इसकी लोकभाषा का नमूना नहीं प्राप्त हो सका। १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० २५३ (प्रथम संस्करण) और भाग २
पृ० १८५-८६ (द्वितीय संस्करण) २. वही भाग ३ खण्ड २ पृ० १६०३ (प्रथम संस्करण) और भाग ३
पृ० १६४ (द्वितीय संस्करण)
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