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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास राजलदेसर, सम्यक्त्व कौमुदीरास सं० १६२४ डेह, आराधना चौपइ सं० १६२३, नागौर, जम्बू चौपइ, सं० १६३२ डेह, मोती कपासिया संवाद सं० १६३२, रतनचड़ चौपइ सं० १६३६, सिंघासन बत्तीसी सं० १६३६ मेडता, जीभदांत वाद सं० १६४३, बीकानेर, हीयाली सं० १६४३ बीकानेर, मुखवस्त्रिकाविचार सं० १६१५, पंचाख्यानगत वकनालिकेर कथानक सं० १६४९, पंचसति द्रौपदी चौपइ सं० १६५६, राजसिंह रत्नावली संधि सं० १६१९ झंझेड, गुर्वावली सं० १६१९ झंझेड़ इत्यादि । ___ आपकी रचनाओं में गुरुपरंपरा के अन्तर्गत सागरचंद्र> महिमराज> दयासागर> ज्ञानमंदिर> देवतिलक> हर्षप्रभ का उल्लेख मिलता है। आपकी प्रमुख रचनाओं का विवरण-उद्धरण आमे दिया जा रहा है
कुमति विध्वंसन चौपइ सं० १६१७ ज्येष्ठ शुक्ल १५ बुधवार, कनकपुरी। यह शुद्ध साम्प्रदायिक खंडन-मंडन परक रचना है। इसमें लोंकामत को कुमति मानकर उसका खंडन किया गया है, इसका प्रारम्भ देखिये
बंदु चौबीसे जिणराय, समरी सरसति सामणि पाय, आगम वचन कहू चौपइ, सांभलज्यौ निश्चल मनधरी । अंग इग्यारह बार उपांग, छेद ग्रंथ षटज्ञान सूचंग, दसे पइन्ना मल विचार, नंदी ने अनुयोग द्वार। इण परि आगम पैतालिस, वर्तमान वरत सुजगीस, तास भणण विध कहीय जिनेस, ते तुम्ह सुणौ कहूं लवलेस। आगे लोकाशाह पर व्यंग करते हुए कहते हैंजिनशासन जिन प्रतिमा नमै, सिवशासन हरिमंदिर रमै,
मुसलमाने मानै महिराव, पूछो लूका तुम्ह कुण जाब । रचनाकाल-सोलह से सतरोत्तर वास कर्णपुरी नयरी उल्हास ।
श्री अगरचन्द नाहटा इसका रचनाकाल सं०१६१७, श्री मो० द० देसाई सं. १६०७ या १६१७ और प्रेमसागर जैन सं०१६७७ बताते हैं, किन्तु १६०७ और १६७७ दोनों तिथियां कई कारणों से गलत मालूम १. श्री अगरचन्द नाहटा--परंपरा पृ० ७५ २. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ३३-४२ (द्वितीय संस्करण)
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