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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अर्थात् मानव की शोभा शील से है जैसे सुगन्धि से पुष्प की, पानी से तालाब की है। मयणरेहा ने नाना कष्ट उठाकर भी शील की रक्षा की, यथा
मनवचने मायाकरी किमहिनखंड्यो सील,
मयणरेहा संकटेपड्या, पाल्यु सील सलील । रचनाकाल--नयनरस रिपुनु ससिमित वरसइ,
महिमावती नगरी मन हरसे, चंद्र प्रभुसुपसाइ इसमें जिनचन्द्र सूरि और सम्राट अकबर की मुलाकात का भी उल्लेख किया गया है, यथा
प्रतिबोधी अकबर नर नायक, सकल जंतु ने अभयदायक,
जिनचन्द्र सूरि विजयराजे, कवि ने अपने को जिणचन्द्र का शिष्य कहा है
युग प्रधान जिनचंद्रसूरीस, हरषवल्लभदाखे तसुसीस ।
सुणतां मंगलचार। यह रचना चार खण्डों में विभक्त है।
ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में 'जिनराजसूरि गीतम्' के अन्तर्गत हर्षवल्लभ कृत एक गीत ९ छंदों का संकलित है जिसका आदि इस प्रकार है
गछपति वंदन मनरली रे, गरुओ गुणह गंभीर,
श्री जिनराजसूरीसरुरे, सविगछ कइ सिरि हीर रे । इस गीत के अनुसार जिनसिंह सूरि के शिष्य जिनराज सूरि का पट्ट महोत्सव सं० १६७४ में हुआ था। ___ इसकी अन्तिम कड़ी इस प्रकार है--
धरमसीनंदन दिनदिनइ रे, दीपइ जिम रविचंद
हरष वल्लभ वाचक कहइ रे, आपइ परमाणंद ।' इस गीत रचना के समय तक कवि को वाचक पदवी प्राप्त हो चुकी थी।
१. ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह 'जिनराज सूरि गीतम्'
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