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________________ मरु-गुर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचना काल-संवत सोल कला जसा निर्मला तम्ह गुणसार, ग्रह आगलि वली रस जाणीइ विजयादसमी गुरुवार । ओ संवत्सर रास रच्युहृदि धरि हर्ष अपार, श्री राजविजय सूरीश्वर करुं संघनी जयजयकार । रास के अन्त में गुरुपरंपरा इस प्रकार बताई गई है श्री नेमि जिनवर सकल सुखकर ! भवभावठि दूरि करो, श्री रत्नविजय सूरींद पाटि, श्री हीररत्न सूरीश्वरो। तास शिष्य शिरोमणि लबधिरत्न सिद्धिरतन हरषकरो, तास शिष्य हर्ष रतन इम कहि नेमिजिन मंगलकरौ।' हर्षराज-पूर्णिमागच्छीय उदयचन्दसूरि के शिष्य मुनिचंद्रसूरि हुए हैं, उनके शिध्य विद्याचन्द्र थे। इन्हीं विद्याचंद्रसूरि के शिष्य लब्धिराज के आप शिष्य थे। आपने सं० १६१३ ज्येष्ठ शुक्ल २ शनिवार को मरुगुर्जर भाषा शैली में 'सुरसेनरास' नामक काव्य की रचना अहमदाबाद में की। इसका आदि इस प्रकार है पास जिणेसर धुरि प्रणमीने, प्रणमी श्री गुरुपांय रे, सुविह संघ पसायलहीने, गायसु क्षत्रीयराय रे । सुरसेन नामे ते जांणु दया विषइ जस भाव रे, दया थिकी सवि वंछित लहीइ, जाइ भवना पाव रे । -गुरुपरम्परा-पूनिमपक्षि गिरुआ गछनायक श्री उदयचंद सूरींद रे, तसु पाटि श्री मुनिचंद सूरीश्वर, सोलकला जिमचंद रे । तास पाटि विद्या गुण भरीआ, श्री विद्याचंद्र सूरीस रे, संप्रति ते गुरु पाय पसाइ, पभणइ हर्ष मुनीस रे । रचनाकाल-संवत सोल तेरोतइ ओ (१६१३) ज्येष्ठ मास सुविशाल, सुदि पक्षि दिन बीजानु शनिवार रच रास रसाल । स्थान अहमदाबाद नगर मांहि ओ विजय मुहूरत अभिराम, हर्षराज पंडित भणइ ओ, सीझइ वंछित काज । २ १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १०६५-६६(प्रथम संस्करण) और भाग ३ पृ० ३१४ (द्वितीय संस्करण) २. वही भाग १ पृ० २०४, भाग ३ पृ० ६७५-७६ और भाग २ पृ० ६८-६९ (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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