________________
५६८
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आपका संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी ( मरुगुर्जर ) भाषाओं का ज्ञान तथा काव्य, शास्त्र, वैद्यक आदि विषयों के गम्भीर अध्ययन का अनुमान होता है।
मरुगुर्जर में आपने 'विजयशेठ विजया शेठाणी स्वल्प प्रबन्ध' नामक २४ कड़ी की एक रचना की है जो संज्झायमाला (लल्लभाई)
और 'प्राचीन स्तवन संज्झाय संग्रह' में प्रकाशित है। इसमें कवि ने गुरुपरंपरा इस प्रकार बताई है
नागोरि तपगछ आचारज सूरिराय, श्रीचन्द्रकीरति सूरि प्रणमुतेहना पाय,
श्री हर्षकीर्ति सूरि पभणे तास पसाय ।' इसका प्रारम्भिक पद्य निम्नांकित है
प्रह उठी रे पंच परमेष्ठि नमउ, मन सुध्ये रे तेहने चरणे हं नमु। धुरि तेहने रे अरिहंत सीद्ध बखाणीई,
आचारज रे उपाध्याय मन आणीई। अन्त–(कलश)
इम कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे जेणि शियल पाल्यो निरमलो, ते दंपतिना भाव शुद्धे सदा शुभगुण सांभलो। जेम दुरित दोहग दूरि जाय सुख थाये बहुपरे,
सकल मंगल मनह वंछित कुशल नित्य घरे अवतरे । आप कवि से अधिक टीकाकार और विविध शास्त्रों के ज्ञाता विद्वान् सूरि थे। मरुगुर्जर में आपकी किसी अन्य रचना का उल्लेख नहीं मिलता।
हर्षकुशल -आप खरतरगच्छीय समयसुदर के प्रशिष्य एवं मेघविजय के शिष्य थे। आपने सं० १६६० से 'बीशी' की रचना
१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४६९-७०, भाग ३ पृ० ९४४ (प्रथम ____ संस्करण) भाग ३ पृ० ११६-१८ (द्वितीय संस्करण) २. वही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org