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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसमें युग का अर्थ 'दो' और चार दोनों लग सकता है क्योंकि सतयुग आदि चार युग माने जाते हैं। अतः २४ और ४४ दोनों वर्ष हो सकते हैं। स्थान और गुरुपरंपरा से सम्बन्धित पंक्तियाँ देखिये
नयर उर्णाक मांहि उल्हासि, मीडिभंजण जिणेश्वर पास, विवदणीक गछ गिरुओ सार, श्री सिद्धसूरि गुरु गुणभंडार । तास सीस सूर समान, वाचक लक्ष्मीरत्न अभिधान ।
कर जोड़ी कहे तेहनो सीस, सुणयो अह कथा निसदीस । कवि की संस्कृत भाषा में भी गति मालूम पड़ती है। ८३वीं कड़ी के पश्चात् एक परंपरित श्लोक कुछ परिवर्तन के साथ रखा गया है
यदक्षर पदभ्रष्टं स्वरव्यंजन वजितं, तत्सर्व क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर । तं माता तं पिता चैव तं गुरुं तं च देवता,
विद्यादान प्रदानाय पंडिताय नमोनमः । इसके प्रारम्भ की कड़ियां इस प्रकार हैं
प्रणम्य देव देवस्य श्री गुरुश्च तथा श्रुतं,
द्वात्रिंशत भरटकानां कर्तव्यं कौतुकान मया। इसके बाद यह दूहा है
कमलनंदन तस सुता, प्रणमूतेहना पाय,
जिम मुझ मनवंछित फलो, आपे अचल पसाय । अन्त की चौपाई इस प्रकार है
भरडक बत्तीसी कथा मे जाणि, अतले पूर्णवत्रीस वषाणि ।
मुनिवर हरजी कहे मनरगे, भणतां सुणतां आणंद अंगे।' 'विनोद चौत्रीसी कथा अथवा रास' ३४ कथा (१९०० कड़ी) सं० १६४१ आश्विन शुक्ल १५ गुरुवार को लिखी गई। इसका आदि इस प्रकार है
पास जिणवर पास जिणवर पाय प्रणमेव, आस पूरि सहुको तणी बुद्धि सिद्धि नव निधि आपि, त्रिभोवनतारण ओ सदा कृपाकरी सेवक निज थापि ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७११-१६ (प्रथम संस्करण) और भाग
२ पृ. १६९-१४४ (द्वितीय संस्करण)
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