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हामी
उदाय मुनिवर गुण निति मतिधरइ, साधु सुश्रावक सुषते अणुसरइ। अणसरइ बहु सुष तेह अहनिसि जे रिषि गुण गावइ, श्री बीर वाणी खरी जाणी ध्यायइ ते सुष पावइ । उवझाय श्री विनयमूरति सीस संजिम इम कहइ,
जे भणइ भावइ रिदय पावइ सयल सुख सम्पति लहइ ।' आपकी एक अन्य रचना २४ जिन वृहत्तत्त्व ( चौबीसी) का भी उल्लेख मिलता है। आप सोमसुन्दर > विशालराज > मेघरत्न के शिष्य और 'उपदेशमाला विवरण' के कर्ता संयममूर्ति से भिन्न हैं जिसका परिचय पहले दिया जा चुका है।
संयमसागर - आप भट्टारक कुमुदचन्द्र के शिष्य थे। आपका निश्चित समय ज्ञात नहीं है। आप ब्रह्मचारी और कवि थे। काव्यरचना में अपने गुरु की सहायता भी करते थे। इनके कई पद और गीत उपलब्ध हैं जो साम्प्रदायिक इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। आपने भट्टारक कुमुदचन्द्र गीत, पद (आवो साहेलडी रे सहूमिलिसंगे), पद (सकल जिन प्रणमी भारती समरी), नेमिगीत, शीतलनाथ गीत और गुरावली गीत आदि की रचना की है । इन रचनाओं का विवरण और उद्धरण नहीं प्राप्त हो सका है परन्तु यह निश्चित है कि आप १७वीं शताब्दी (विक्रमी) के कवि और जैन साधु थे।
हरजी-बिंबदणिक गच्छ के सिद्धसूरि >क्षमारत्न > लक्ष्मीरत्न आपके गुरु थे। आपने सं० १६२४ (४४) आसो शुक्ल १५ को उर्णाक नगर में 'भरडक बत्तीसी रास' लिखा। कवि ने इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया है जिससे सं० १६२४ और १६४४ दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं, यथा
वेद युग रस चंद्र स्यु संवत्सर जोइ,
वाम गति गणयो सहू अंकतणीपरि सोइ । १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४६२ और भाग ३ पृ० ९३८ (प्रथम
संस्करण) तथा भाग ३ पृ० ३-४ (द्वितीय संस्करण) २. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल--राजस्थान के जैन संत पृ० १९२-१९३
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