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भरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सरसति दुमति मुझ अति घणी, हुं छउं सेवक निज तेह भणी, गाइसु वीर जिणेसर पाट, जासु नाम हुई गहगाट । संवत सोल वीडोत्तरि ओ रची पट्टपरंपरा, वर जेठ मासि मन उल्लासि, तेरसि ससि सुखकरा।'
अन्त
सौभाग्यमंडन -आप तपागच्छीय विनयमंडन के शिष्य थे। विनयमंडन के एक अन्य शिष्य जयवंत सूरि या गुणसौभाग्यसूरि हुए जिनके सम्बन्ध में श्री देसाई ने जैन गुर्जर कविओ के भाग १ पृ० १९३-९८ और भाग ३ प० ६६६ से ६७२ पर विवरण दिया है। आपकी मुरुपरंपरा इस प्रकार है-विद्यामंडन > जयमंडन > विवेकमंडन > रत्नसागर >सौभाग्यमंडन । विनयमंडन पाठक या उपाध्याय थे न कि पट्टनायक । सं० १५८७ वैशाख वदी ६ रविवार को कर्माशा ने शझुंजय पर ऋषभनाथ और पुंडरीक की मूर्तिप्रतिष्ठा कराई थी उस प्रतिष्ठा महोत्सव में विनयमंडन पाठक भी उपस्थित थे। इनके शिष्य विवेकधीर गणि और जयवन्तसरि प्रसिद्ध थे। जयवन्त सरि ने गुर्जर में शृंगारमंजरी की रचना सं० १६१४ में की थी। इसका विवरण यथास्थान दिया जा चुका है। .
सौभाग्यमंडन ने सं० १६१२ में 'प्रभाकररास' लिखा जिसकी निम्न पंक्ति से प्रकट होता है इसके रचयिता महिराज हैं, यथा
तेह तणइ सानिधि करी कहइ पंडित महिराज । ऐसी स्थिति में श्री मो० द० देसाई ने इसे सौभाग्यमंडन की रचना क्यों बताया ? जैन गर्जर कविओ(द्वितीय संस्करण) के सम्पादक ने भी इस शंका का समाधान करने का प्रयत्न नहीं किया है ।
__ संयममूति--आप विनयमूर्ति के शिष्य थे। आपने सं० १६६२ से पूर्व 'उदाई राजर्षि सन्धि' की रचना की जिसकी अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार हैं१. जैन गुर्जर कविगो भाग ३ पृ० ६४७ प्रथम संस्करण) एवं भाग २
पृ० २-११ (द्वितीय संस्करण) २. वही भाग ३ पृ० ६७५ (प्रथम संस्करण) और भाग २ पृ० ६६ (द्वितीय
संस्करण)
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