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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कुमरगिरि मंडण श्री शांतिनाथ स्तवन (३८ कड़ी) आदि सरस वचन दिउ सरसती, सन्ति जिणेसर राय,
भगतिइं भाखं वीनती, पामी श्री गुरुपाय ।' अंत सा(ड)त्रीसे दूहे करी, वीनविऊ अंति जिणंद,
श्री सोमविमलसूरि इम भणइ, कुमरगिरिइं आणंद । पट्टावली संज्झाय सं० १६०२ में लिखी गई जो पट्टावली समुच्चय भाग २ में प्रकाशित है। जैन साहित्य में नेमिचरित इतना आकर्षक है कि इस विषय पर प्रत्येक कवि कुछ न कुछ लिखे बिना नहीं रह पाता। आपने भी ९ कड़ी की एक छोटी रचना 'नेमगीत' नाम से लिखी है। उसकी कुछ पंक्तियाँ देखिये
कपूर हुइ अति निरमलुरे, वलीय अनोपम गंध, तुहि मन भणी रे मिरीयां सरीखु बंध रे । जेहनइ जेह सुरंग ते ते शुकरइसंग, तेहनइ गमइ बीजु चंगरे। राजीमती सखी प्रति कहइ रे जुकालु नेमिनाथ, तुहिम मे आदयु रे भविभवि अहनु साथ रे । राजुल उजलिगिरिमिली रे पुहुतां मननां कोड,
सोमविमल सूरि इमभणइ अनु अविहड जोडिरे ।' श्रेणिकरास की अनेक प्रतियाँ प्राप्त होती हैं । दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा बीसपंथी, द्यौसा की प्रति में रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
भवन अकाश हिमकिरण मा, सं० १६०३ इणि अहिनाणि सू,
भादव मास सोहामणइ ए मा पड़े विच चडिउ प्रमाणि । ३ १. डा० शिति कण्ठ मिश्र-आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य का वृहद्
इतिहास खंड १ पृ० ५२७ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ३५९-६० (द्वितीय संस्करण) एवं भाग २
पृ० २ से ९ (द्वितीय संस्करण) भाग १ पृ० १८३-१८८ तथा ६०२, भाग २ पृ० ५९३ और भाग ३ पृ० ६४८-५२, भाग ३ खंड २ पृ०
१५९६ (प्रथम संस्करण) ३. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल--राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की __ ग्रन्थ सूची भाग ५ पृ० ६४३-४४
अंत
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