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सूरचन्दगणि
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सूजी- आप लोंकागच्छीय ऋषि रतनसी के शिष्य थे। आपने सं० १६४८ वैशाख कृष्ण १३ को ताल नगर (मेवाड़) में 'श्री पूज्य रत्नसिंह रास' की रचना की जिसका प्रारम्भ इस प्रकार है
सरसति सामणि द्यउ मति माय, हंसगमणि गति आपयो भाय । गूण गीरुयां तणां गायस्यू गुपति अक्षर आठायो ठाय तु,
गणरतनागर गायसू।
संवत सोल अड़तालि जी जाणि, मास विसाख ते सगूण वखाणि । तिहां वदि तेरस जांणयो,
रतनसी ऋषि धर्यो संयमभार तु । संभवतः यह तिथि रतनसी के दीक्षा के समय की है । यदि इसी अवसर पर यह रास रचा गया हो तो इसका यही रचनाकाल भी होगा। श्री मोहनलाल देसाई ने यही इसका रचनाकाल माना है। रचना स्थान आगे इन पंक्तियों में बताया गया है
तालनगर मेवाड़ मझारि प्रतपि जी संघलराव खेंगार,
सेवक सूजी वीनवइ, रच्यउ रास अतिहि सुखकार । इसकी अन्तिम (४४वीं) कड़ी इस प्रकार है
संघ चतुर्विध दीय छी असीस, रतनसी जीवज्यो कोडि वरीस । कोड्या तो ऊपरि जाणयो, अनुक्रमि वसयो मुगति मझारि ।'
सूरचन्द गणि--आप खरतरगच्छीय जिनसिंह सूरि>चारित्रोदय >वीरकलश के शिष्य थे। श्री अगरचन्द नाहटा ने इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक परिचयात्मक लेख जैनसिद्धान्त भास्कर में प्रकाशित किया है। उससे पता चलता है कि आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी एवं राजस्थानी के अच्छे विद्वान् थे। आपने संस्कृत में स्थूलिभद्र १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २४६ (द्वितीय संस्करण) और भाग
३ पृ० ७८९-९० (प्रथम संस्करण)
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