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सुमतिसिन्धु
चूंकि इन्होंने अभयनन्दि और रत्नकीर्ति दोनों का शासनकाल देखा था। अतः इनका समय लगभग' सं० १६०० से १६६५ तक के आसपास होना चाहिए। डा० हरीश शुक्ल ने भी इसी के आधार पर सुमतिसागर का संक्षिप्त परिचय अपनी रचना जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता के पृ० ८३-८४ पर दिया है।
सुमतिविजय-ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह में श्री जिनराज सूरि सवैया एवं 'जिनराजसूरि गीतम्' शीर्षक से कुछ रचनायें जिनराजसूरि की स्तुति में संकलित हैं जिनके लेखक कविदास, सहजकीर्ति और सुमतिविजय हैं। सुमतिविजय का गीत इसमें छठां है। इसकी दो पंक्तियाँ निम्नांकित हैंश्री जिनराज सूरीसर गच्छ धणी रे,
__ मानी मझनी अरदास रे, सुमतिविजय कहि चतुर्विध संघनी रे,
पूजजी सफल करउ हिव आस रे ।' रचना का काव्यगुण सामान्य है और भाषा सरल मरुगुर्जर है।
सुमतिसिन्धु (सिन्धुर)-आप मतिकीर्ति के शिष्य थे। आपने सं० १६९६ महासुद ८ को 'गोडी पार्श्वनाथ स्तवन' (२० कड़ी) की रचना की, जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं
पुरुषादेय उदयकरु श्री गोडी प्रभुपास । और अन्तिम पंक्तियाँ ये हैंसंवत सोल छयाणवइ, माहा हे आठमि दीह उदार कि भेटवा हे गोडीपास जी दुख भेटवा हे भवनासच्चा हे पारकि । सेरीसइ संखेसरइ खंभनयरइ हे जगहथंभण पास कि, ग्राम नगर रट्टण पुरइ रहेवा पूरइ हे निज भगतानी हे आसकि ।२
इस रचना में कवि अपनी गुरुपरंपरा में केवल मतिकीर्ति का नामोल्लेख किया है, यथा१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० १७३ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ३१३ (द्वितीय संस्करण)
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