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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (संवत् १६२७) में अपना गुरुभाई और शुभचन्द्र का शिष्य बताया है। प्रस्तुत सुमतिकीर्ति ज्ञान भूषण के शिष्य थे ये भट्टारक नहीं बल्कि ब्रह्मचारी या अन्य पद धारी रहे होंगे। इसीलिए इन्होंने ज्ञानभूषण के पश्चात् प्रभाचन्द का नाम गिनाया है। डा० कासलीवाल ने जिस प्रकार सकल भूषण, देवेन्द्रकीति और ब्रह्म कामराज की साक्षी देकर दूसरे सुमतिकीर्ति को शुभचन्द्र का शिष्य प्रमाणित किया है वैसे प्रस्तुत समतिकीर्ति के लिए ज्ञान भूषण का शिष्य सिद्ध करने का कोई प्रमाण नहीं दिया है। इसलिए अन्तक्ष्यि के आधार पर हम इन्हें ज्ञान भूषण के शिष्य प्रभाचन्द का शिष्य ही मानने को विवश हैं। प्रस्तुत सुमतिकीति ने प्राकृत पंचसंग्रह टीका में भी लिखा है
भट्टारको सुविख्यातो जीयाछी ज्ञान भूषणः ।
तस्य महोदये भानुः प्रभाचद्रो वचोनिधिः । संस्कृत में आपने कर्मकांड टीका भी लिखी है। हिन्दी (मरुगुर्जर) में उपरोक्त तीन पुस्तकों के अलावा जिनवर स्वामी वीनती, जिह्वादंत संवाद, वसंतविद्या विलास आदि अन्य छोटी रचनाओं के अलावा अनेक स्फुट पद और गीत आदि भी प्राप्त हैं। ___ आपकी प्रसिद्ध रचना धर्मपरीक्षा रास का विवरण राजस्थान के जैन शास्त्रभंडारों की ग्रन्थसूची भाग ५ पृ० १२१ और भाग २ पृ० ७० पर भी उपलब्ध है। इस रचना का विवरण पं० परमानन्द ने अपने प्रशस्ति संग्रह प० ७४ पर भी दिया है। इससे प्रमाणित होता है कि उक्त रचना विशेष महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय रही है। लोगों का ध्यान वास्तविक धर्म की ओर आकृष्ट करने के लिए और लोगों को मूढ़ता के चक्कर से बचाने के लिए इन्होंने अपनी महत्वपूर्ण कृति धर्मपरीक्षा रास की रचना की थी। इसमें अमित गति द्वारा वर्णित धर्मपरीक्षा का सारांश सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस रास का विवरण डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने दिगम्बर जैन अग्रवाल मन्दिर, उदयपुर में सुरक्षित प्रति के आधार पर दिया है । जिनवर स्वामी वीनती में २३ छन्द हैं। एक पंक्ति देखिये
धन्य हाथ ते नर तणा जे जिन पूजन्त, नेत्र सफल स्वामी हवां जे तुम निरपंत ।
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