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सुमतिकीर्ति
त्रैलोक्यसार चौपइ अथवा धर्मध्यान रास सं० १६२७, इसमें कवि ने रचनाकाल नहीं दिया है। इसमें भी गुरुपरंपरा दिखाते समय ज्ञान भूषण के पश्चात् प्रभाचन्द का उल्लेख है--
ज्ञानभूषण तस पाटि चंग, प्रभाचन्द वादो मनरंगि। त्रैलोक्यसार चौपई और धर्मध्यानरास एक ही रचना के दो नाम हैं न कि दो रचनायें हैं जैसा कि श्री नाहटा जी ने दर्शाया है, यथा--
सुमतिकीरति यतिवर कहि सार, त्रैलोक्यसार धर्मध्यान विचार ।
इसके प्रारम्भ में कवि ने लोक-अलोक का वर्णन इस प्रकार किया है--
सरसति सद्गुरु सेवु पाय, सुमतिनाथ पंचमो जिनराय, त्रैलोक्यसार ग्रंथ जोई कहुं तेह विचार सुणो तमे सहु । अलोकाकास मांहि छि लोक, अधो मध्य ऊर्ध्वइ छि थोक,
द्रव्य छ भर्यो लोकाकास, अलोक मांहि केवल आकास । लोंकामत निराकरण चौपई सं० १६२७ चैत्र शुक्ल ५ रविवार को दादानगर में लिखी गई एक साम्प्रदायिक रचना है। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया है
संवत सोल सतावीस कि चैत्र मास वसन्त,
सुदिपक्षे पांचमी रचौ रच्यो रास महंत । इसमें लोकामत का खंडन है, यथा--
अणहिल्लपुर पाटण गुजरात, महाजन वसइ चउरासी न्यात, लघुशाखी ज्ञाते पोरवाड़ , लोको सोठि लिहा छि धाल । ग्रंथ संख्यानइ कारणो बढ्यो, जैनमति स बहु चिउभिड्यो।
लोके लीन्हे कीधा भेद, धर्म तणा उपजाया छेद ।' इसमें भी गुरु परंपरा वही दी गई है, यथा--
ज्ञानभूषण पट्टितिलो प्रभाचन्दयतिराय,
सुमति कीरति मुनिवर कहिरयणभूषणसविपाय । डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल का कथन है कि सुमतिकीर्ति नामक . दो सन्त एक ही समय हुए, एक ज्ञान भूषण और दूसरे शुभचन्द्र के शिष्य थे। दूसरे सुमति कीर्ति को सकलभूषण ने उपदेश रत्नमाला १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १४४-१४७ (द्वितीय संस्करण)
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