________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास चौपइ अथवा धर्मध्यान रास सं० १६२७ में और लोकामत निराकरण चौपइ की रचना की।
श्री मो० द० देसाई ने इन्हें ज्ञानभूषण के शिष्य प्रभाचन्द्र का शिष्य बताया है । डा० कासलीवाल तथा डा. हरीश इन्हें ज्ञानभूषण का ही शिष्य सिद्ध करते हैं अतः दो विद्वानों की राय स्वीकारते हुए इन्हें ज्ञान भषण का शिष्य मान लेना चाहिये किन्तु यह गुरु परंपरा पाठ के अनुसार उचित नहीं लगती है। कवि ने ज्ञान भूषण के पश्चात् प्रभाचन्द्र को बराबर सादर स्मरण किया है। जो पुस्तकों के विवरणों को देखने से स्पष्ट हो जायेगा, अतः प्रभाचंद को ही इनका गुरु मानना युक्ति युक्त लगता है। धर्म परीक्षा रास सं० १६२५ मागसर शुदी २ हांसोट का प्रारम्भ देखिये--
चंद्रप्रभस्वामी नमीइ, भारती भुवनाधार तु ।
मूलसंघ महीयलि महीत, बलात्कारगणसार तु। इसमें गुरु परंपरान्तर्गत विद्यानंदी, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचंद, वीरचंद और ज्ञानभूषण की वंदना है और इन पांचों के पश्चात् प्रभाचन्द्र का स्मरण-वंदन किया गया है, यथा--
लक्ष्मीचन्द श्री गुरु नमू दीक्षादायक अह, वीरचन्द बाएं सदा सीषांदायक तेह । तेह पाटि पट्टोधरु ज्ञानभूषण गुरुराय, आचारिज पद आपीयू तेहना प्रणमू पाय । तेह कुलकमल दिवसपति प्रभाचन्द यतिराय, गुरु गछपति प्रतपो घणु मेरुमहीधर जांव । सुमतिकीरति सूरी रच्यो धर्म परीक्षा रास,
शास्त्र घणो जोईकरीकीधु बहु प्रकाश । रचनाकाल तथा स्थान--
पंडित हे प्रेर्या घणुवणायग निवारदास, हांसोट नयरि पूरो कर्यो धर्मपरीक्षा रास । संवतसोल पंचवीस बि मार्गसिर सुदि बीजा वार,
रास रुडो रलियामणो पूर्णहवोछी सार । १. श्री अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ९२ २. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० २२७-२८, भाग ३ पृ० ७१०-११ तथा
भाग ३ खंड २ पृ० १५०९-१० (प्रथम संस्करण) और भाग २ पृ० १४४-१४७ (द्वितीय संस्करण)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org