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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
निबद्ध हैं जिस गुटके को स्वयं सुन्दरदासजी ने मल्लपुर में वि० सं० १६७८ में लिखा था । लगता है कि डा० प्रेम सागर जैन ने स्वयं उक्त गुटके को देखे बिना ही का० प्र० जैन की बात यथावत् स्वीकार कर ली है इसलिए काफी घपला हो गया है । सुन्दर श्रृंगार नायकनायिका वर्णन का ग्रन्थ है । यह कवि दरबारी है । शाहजहाँ द्वारा महाकविराय पदवी प्राप्त और सम्मानित है, यह सन्त कवि सुन्दरदास और जैन कवि सुन्दरदास से अवश्य भिन्न होगा । का० प्र० जैन को भी सुन्दरदास जी बागड़ प्रदेश के निवासी विदित होते हैं । पर कैसे ? यह नहीं बताया है । उन्होंने जो पद्य उद्धृत किए हैं उनके सम्बन्ध में भी वे निश्चित नहीं हैं बल्कि लिखते हैं कि वह सुन्दर विलास के हो सकते हैं। मुझे लगता है कि ये पद्य सुन्दरविलास के नहीं वरन् जैन कवि सुन्दरदास के स्फुट पद्य हैं । उदाहरणार्थं कुछ पंक्तियाँ देखिये
जीवदया पालै नहीं चाहै सुसुख अपार,
बो बीज बबूल कौं पणिसो क्यों फलति अनार । नितप्रति चितवै आत्मा करे न जड़ की आस, तिनको कवि सुन्दर कहै मुकतिपुरी होइ बास । इनके एक पद की दो पंक्तियां और प्रस्तुत हैं-
जीयामेरे छांड़ि विषय रस ज्यों सुख पावै, सब ही विकार तजि जिण गुण गावै ।
यह पंक्ति स्पष्ट ही जिण या जिन का गुण गान करने की ओर निर्देश करती है और किसी जैन कवि की रची लगती है । लिखता है --
आगे
घरी घरी पल-पल जिण गुण गावै, तातै चतुरगति बहुरि न आवै । जो नर निज आतमु चित लावे, सुन्दर कहत अचल पद पावै ।
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इसलिए कवि सुन्दर अवश्य कोई जैन कवि थे जिनकी रचनायें और स्फुट पद, पद्यादि प्राप्त हैं, और वे संभवतः बांगड़ निवासी रहे
१. श्री कामता प्रसाद जैन - हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० १२७-१२८
२ वही पृ० १२८
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