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सुधन हर्ष का उल्लेख है, यथा
कुमति तजी सुमति भजी सार्याआतमकाज,
उद्योतविजय विबुध पद दीउ धनधन हीरगुरुराज । रचनाकाल-संवत् १६ अठोतरे, द्वितिया मागसिर मास,
शुक्ल पक्ष मूलारके पूरण रचियो रास । संघविजय कवियण भणे, सरसति सानिधि कीध,
सद्गुरु पाय पसाउलें तणे पामि सद्बुद्धि । विक्रमसेन शनिश्चर रास (सं० १६८८ कार्तिक वदी ७ गुरुवार) आदि सिद्धनामा उदार धुरि, ज्ञान तेज अनन्त ।
सुखमय परमाणंद पद, पाम्या श्री भगवन्त । रचनाकाल-शशिकला संवत हरिराम,
कार्तिक बहुला गुरुपुण्य अभिराम, सातमि अमृत सिद्धि सवियोग,
वीस वसाधिक मिल्यो संयोग । सिंहासनबत्तीसी और विक्रमसेन शनिश्चर रास में अवंति के राजा विक्रमादित्य की परंपराप्राप्त कथाप्रबन्ध के रूप में प्रस्तुत की गई है। मीन राशि के शनि ने राजा विक्रम को भयाक्रान्त किया किन्तु वह अपने चरित्रबल से अन्ततः सुखी हुआ। इसकी अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार हैं
इय सुणी विक्कम चरियं बहु भक्ति सिंह विबुहेण,
जे पढ़इ गुणइ निसुणइ, ग्रह पीड़ा न कुणइतास ।' इस प्राकृताभास छंद में कवि ने बताया है कि इस कथा के पढ़ने से शनि ग्रह की पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। इसकी कथा कौतूहल वर्द्धक, भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न और शैली काव्यत्वपूर्ण है ।
सुधन हर्ष- आप तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरि की परंपरा में धर्म विजय के शिष्य थे। आपने सं० १६७७ मकरसंक्रान्ति पोस सुदी १३ को 'जंबूद्वीपविचार स्तव' लिखा। इसका आदि इस प्रकार है१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १५२-१५८ (द्वितीय संस्करण)
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