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निम्नवत् है-
अन्त
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सरसति भगवति भारती, कविजन केरी माय, अमृत वचन निज भगतनइ, आपो करी पसाय, शासनदेवी चिति धरू प्रणमु निज गुरु पांय, प्रथम तीर्थंकर वर्णवु, श्री रिसहेसर राय । संवत् ससि रसकाय निधान, अ संवत्सर कह्यो परधान, आसो मासि तृतीय उजली, कर्तुं तवन पूरण मनरुली । '
इनकी दूसरी कृति 'अमरसेन वैरसेन राजर्षि आख्यानक' सं० १६७९ मार्गशीर्ष शुक्ल ५ को लिखी गई । इसमें गुरुपरंपरा बताते हुए कवि ने हीरविजय सूरि की सम्राट् अकबर से मुलाकात का भी उल्लेख किया है
पट्ट परंपर वीर नो, क्रमइ हवो युगहप्रधान, श्री हीरविजय सूरीश्वर अकबर नृप दीइं मान ।
मेघजी ऋषि द्वारा लुंकामत त्याग कर हीरजी के पास आने का वर्णन निम्न पंक्तियों में द्रष्टव्य है
सोल अठावीसइं आवीया मेघजी ऋषि उदार, लुंकामत मूंकी करी, कुमति कीउ परित्याग ।
गुरुपरंपरा इस प्रकार बताई गई है । मेघजी का नाम उद्योतविजय • पड़ा। इनके शिष्य गुणविजय के शिष्य संघविजय थे, यथाfreओ गुणविजय गणि गुरुआण वहई निज सीस, तस विनती वगता विवुध संघविजय पभणंति । २ रचनाकाल - चन्द्रकला उदधि निधि वरसे मृगसिर मास, सुदि पंचमी उत्तरांरवि पूरण रचीउ रास ।
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आप भी अच्छे कवि थे और सिंहासनबत्तीसी तथा विक्रमसेन शनिश्चर रास आदि लोकप्रिय ग्रन्थों की रचना की है जिनका संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है ।
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सिंहासन बत्तीसी - ( १५४७ कड़ी सं० १६७८ दूसरा मागसर -सुदी २) मेघजी द्वारा इसमें भी लुंकामत त्यागकर तपागच्छ में आने १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४७४-४७७, भाग ३ पृ० ९५१-९५४ (प्रथम संस्करण) और भाग ३ पृ० १५२ - १५८ (द्वितीय संस्करण) । २. वही भाग ३ पृ० १५२ - १५८ (द्वितीय संस्करण)
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