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मरु-गुर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसमें कवि ने देवगुप्त के बाद जयसागर का अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है, यथा
विवंदणीक गच्छे सहि गुरुसार, श्री देबगुप्त सूरिवंदू गणहार तास सीस पंडित गुणनिलो, श्री जयसागर नामे भलो,
तास सीस करजोड़ी करी, सिद्धि सूरि पभणे एहचरी । इन्होंने कुलध्वज कुमार रास, शिवदत्त रास आदि अन्य कई रचनायें भी मरुगुर्जर में रची हैं। कुलध्वज कुमार रास सं० १६१८ श्रावण वदी ८ रविवार को पूर्ण हुआ था। इसके प्रारम्भ में सर्वप्रथम वस्तु. चौपइ और उसके बाद यह दूहा है
पहिलं सरसति पय नमी लेइगिरुया गुरु नाम, कुलध्वज रास तणां सही बोलेस गुणग्राम । सीलवंत मांहि धुरी, गुणनिधि जे गंभीर, कुलमंडन कुलतिलक जे बसुहां ते बड़बीर । तेह तणां गुण बोलसुं, आणी मनि उल्हास,
सजन सहूज सांभलु जिम पुहुची सवि आस । रचनाकाल-संवत् १६१८ रोतरइ ओ मा० श्रावण मास रसाल,
वदि आठम तिथि जाणीइ ओ मा० रविवासर सुविशाल ।' शिवदत्त रास (अथवा प्राप्रत्यक नो रास २९५ कड़ी सं० १६२३ चैत्र ६, रविवार) आदि सरस सुवचन सरस दीउं सरसति,
शुभमति दिउ मुझ सारदा, धरीय ध्यान जिनराय केलं,
सुगुरु आंण अहनिशि बहु करु कवित्त ऊलटि नवेरस । इसमें भी कवि ने जयसागर को अपना गुरु स्वीकार किया है। रचना का नाम इस प्रकार बताया है
प्रापति यानो रास उदार, गुणतां भणतां हुइ सार, जे भावइ भवियणि नितुभणइ, नितुसुखसंपति हुइ तेहतणइ।
संकट सयल तेह घरि टलइ, सही मनवांछित अफला फलइ । अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार है, इसमें रचनाकाल भी है ।
कुण संवत नइं कीहइ मासि, कही कथा मननइं उल्हासि,
संवत सोल त्रेवीसे जांणि, चौद अढयासी शके बखाणि, १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २७-३२ (द्वितीय संस्करण)
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