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________________ ५३६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास __ "संवत् १६८५ वर्षे ज्येष्ठमासे सितपक्षे त्रयोदश्यां, रविवासरे लिखितं रायधनपुरे मुनि स्थानसागरेण प्रवाचनाय" यह कवि की स्वयं लिखित प्रति है। इस प्रामाणिक प्रति में कवि ने रचनाकाल सं० १६८५ ही बताया है, अर्थात् यह प्रति भी उसी वर्ष की है । सिद्धि सूरि-आप बिवंदणीक (द्विवन्दनिक) गच्छ के देवगुप्त सूरि के प्रशिष्य एवं जयसागर के शिष्य थे। देवगुप्त सूरि के प्रतिमालेख सं० १५६७, ७०, ७२, ९३ और ९९ तक के प्राप्त हैं जिनमें उन्हें [सिद्धाचार्य संतानीय कहा गया है। सिद्धिसूरि ने सं० १६०६ वैशाख कृष्ण ४ रविवार को अपनी कृति 'अमरदत्त मित्रानंद रास' (५२३ कड़ी) को ऊंझा में पूर्ण किया था। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं सकल गुणनिधि सकल गुणनिधि सकल जिनराय । पयपंकज प्रणमी करी, भले भावे भारती नमेवीय, सहि गुरु चरणे शिर नमी, अकचित्ते कविराय सेवीय । कर्मकला फल जाणवा मित्रानंदचरित्र, बोलिसि बहु बुद्धिकरी सुणया सहु इकचित्त । यह रचना कर्म सिद्धान्त का महत्व मित्रानन्द के चरित्र के माध्यम से उजागर करने के लिए लिखी गई है। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है कुण संवत्सर केहे मास रच्यो रास ते कहुं विमास, संवत सोला छिओत्तरा जाण, शाके चोद बहत्तरि बखाण । बदि वैशाख चोथि तिथिसार, मूल नक्षत्र निर्मल रविवार, तेणे दिने निपायो रास, सांभलता सवि पुहचे आस । इसमें दोहा, चौपाई मिलाकर कुल 'शतपंचक बीवासा' छंद कवि ने बताया है। गुरुपरंपरा -बेवंदणीक गच्छे सहिगरु सार, सकल कला केरो भंडार; श्री देवगुप्त वंदू सूरीस, करजोड़ी कहे तेहनो सीस । संघ कथन थया ऊलट घणो, रच्योरास मित्रानंद तणो, कुथु जिणेसर तणे पसाय, रची चौपइ ऊंझा मांहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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