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स्थानसागर
स्थानसागर-आंचलगच्छीय पुण्यचन्द> कनकचन्द्र> वीरचन्द्र के आप शिष्य थे। आपने सं० १६८५ आसो कृष्ण ५, मंगलवार को खंभात में अपनी रचना 'अगडदत्तरास' (७७२ कड़ी) ३९ ढालों में आबद्ध की; इसके प्रारम्भ में कवि ने जिनेन्द्र एवं सरस्वती की वंदना की है, यथा--
श्री जिनपद पंकज नमी, समरी सरसति माय, वीणा पुस्तक धारिणी, प्रणमइ सुरनर पाय । हंसगामिनी हंसवाहिनी आपो बुद्धि विशाल, जे नर सरसति परिहर्या ते नर कहीइ बाल ।
मूल ग्रन्थ मांहि करिउ अध्ययन चउथइ जेह,
अगडदत्तनृप केरडो चरित सुणो धरिनेह । रचनास्थान खंभात की प्रशंसा करता हुआ कवि लिखता है
नयरी त्रंबावती जाणीइ अलकापुरीय समान,
देवभुवन सोभइभलां जण होइ इन्द्र विमान । यह रचना खंभात के श्रेष्ठि सावत्थासुत नामजी के आग्रह पर लिखी गई थी। रचनाकाल -तास तण सुपसाय लहीनइ चरित रचिउ मनभाय,
थानसागर मुनिवर इम जंपइ, भविजन सणउ चित्तलाय । संवत शशि रस जाणीइ, सिद्धितणी वली संख, महाव्रत पद आगलि घरउ समकरी गुणो सवि अंक । आश्वनि मासि मनमोहक पूर्ण तिथि वली जाणि,
असित पंचमी ओ सही, भूसुत वार वषाणि । अंत अह चरित जे सांभलइ, तेह घरि लीलविलास,
साधु तणा गुण गाइतां पूरइ हो तणी आस ।' इस रचना को श्री देसाई ने कल्याणसागर की कृति बताया था, किन्तु नवीन संस्करण में सुधारकर परिमाजित कर दिया गया क्योंकि कवि की स्वयं की हस्तलिखित प्रति में रचनाकार का नाम और प्रति का रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५२८-३० (प्रथम संस्करण) और भाम
३ पृ० २६४-२६६ (द्वितीय संग्करण)
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