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सारंग
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ज्ञानसुन्दर > पद्मसुन्दर के गुरुभाई गोविन्द का शिष्य कहते हैं । ' इन्होंने सं० १६७८ में कृष्ण रुक्मिणी री बेलि की संस्कृत टीका 'सुबोध मंजरी' नाम से लिखी है। यह टीका मूलबेलि के साथ हिन्दुस्तानी अकादमी से प्रकाशित हो चुकी है । मरुगुर्जर में भी आपने कई रचनायें की हैं उनमें विल्हण पंचासिका चौपइ गाथा ४१२ सं० १६३९ जालौर, भोजप्रबन्ध चौपइ सं० १६५१ जालौर, वीरांगद चौपइ स ं० १६४५ और भावशतत्रिशिका सं० १६७५ जालौर (संस्कृत टीका सहित ) मुख्य हैं । इनके अतिरिक्त जगदम्बा स्तुति और अन्य कई लघु रचनायें भी आपकी उपलब्ध हैं । भोजप्रबन्ध चउपइ सं० १६५१ श्रावण वदी ९ जालोर को अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
भोजप्रबन्ध तणी चउषइ, सोलइकावन वच्छरि हुई । बड़गच्छ शाखा चंद्रविचार, मडाहडगच्छ गच्छ सिणगार ।
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पद्मसुन्दर नामइ परगडु धुर लगि जासु अनोपम धडु, गुरुभाई तसु छइ गोविन्द, पुरि जालोरि प्रगट आणंद । तासु सीस सारंग सुवाणि, विमल किउ नृप भोज बषाण, श्रावण वदि नवमी कुजवार, प्रकट कीउ कृपा प्रचार ।
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इससे श्री देसाई के कथन का समर्थन होता है और कवि सारंग गोविन्द के शिष्य सिद्ध होते हैं ।
विल्हण पंचासिका चौपइ ( ४१२ गाथा सं० १६३९ जालौर या जाबालिपुर) में कवि ने ज्ञानसागर का स्मरण किया है, यथाश्री मन्नाहड गछवर विद्यमान जयवंत, ज्ञानसागर सूरी अछइ गुहिर महागुणवंत ।
रचनाकाल - ए गुणच्यालइ वछरि उपरि सइल सोल, सुदी आषाढ़ी प्रतिपदा कीउं कवित कल्लोल । इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
प्रणमु सामिणि सारदा, सकलकला सुपसिद्ध, ब्रह्मा केरी वेटडी, आवे अविकल बुद्धि । नारी नामु ससिकला तेह तणु भरतार, कवि विल्हण गुण वर्णवं सील तणइ अधिकार । १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ३०३ (प्रथम संस्करण ) २ . वही
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