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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नेमिस्तव की प्रारम्भिक पंक्ति देखिये
शृंगार हार सुहामणा मंडण कंकण सार,. दूसरे नेमिस्तव का प्रारम्भ इस प्रकार है
तोरण पशु देखिकरि चडियो जब गिरनार । नेमि गीत की प्रथम पंक्ति यह है
राजल राणी प्रिय प्रति इम भणइ । नेमि के लोकप्रिय चरित्र पर आधारित कई स्तवन एवं गीत आपने सरस और प्रसाद गुण सम्पन्न भाषा में लिखा है। इस प्रकार १७वीं शताब्दी के खरतरगच्छीय जैन लेखकों में आपका स्थान महत्वपूर्ण है । गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से आपका साहित्यसर्जन उल्लेखनीय है। अतः आपकी चर्चा प्रायः सभी आलोचकों ने अपनी इतिहास कृतियों में किया है।
साधुरंग-खरतरगच्छीय जिनचंद्रसूरि, पुण्यप्रधान>सुमतिसागर के आप शिष्य थे। आपने सं० १६८५, अहमदाबाद में दयाछत्रीसी की रचना की, इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
दया धरम मोटउ जिनशासण भाख्यउ श्री भगवंत जी,
इम भव परभव सुखीय थायई पालइ जे पुण्यवंत जी। अन्त दया छत्रीसी इणि परिदाखी साखी राखी ग्रंथ जी,
सद्दवहज्यो भवियण! मन मांहे; सांच ओ सिवपंथ जी। श्री जिनचंदसूरि सीस गरुआ, पुण्यप्रधान उवझाय जी, सुमतिसागर तसु सीस सिरोमणि, पामी तासु पसायजी, साधुरंग मनरंगइ बोलइ, आतम पर उपगार जी, संवत् सोल पच्चासी वरसइ अहमदाबाद मझार जी।'
सारंग-श्री अगरचंद्र नाहटा इन्हें मडाहडगच्छीय पद्मसुन्दर का शिष्य बताते हैं। जबकि श्री मो० द० देसाई इन्हें मडाहरगच्छ के
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १०२६ (प्रथम संस्करण) और भाग ३
पृ० २६०-६१ (द्वितीय संस्करण) २ श्री अगरचन्द गटा-परंपरा पृ० ७७
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