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साधुकीर्ति उपाध्याय
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सहजसागर शिष्य-इस अज्ञात शिष्य के सम्बन्ध में श्री मो० द. देसाई ने अनुमान किया है कि संभवतः ये विजयसागर हों। इन्होंने इषुकार अध्ययन संज्झाय (ढाल ३ सं० १६६९ वगडी) नामक रचना की है। इसका आदि देखिये
सहज सलूणा हो साधजी सेवीयई, वसीयई गुरुकुलवासोजी। सुणीयइ सखरी हो सीख सुहामणी, छूटी जाई ग्रभवासो जी। पूत न करीयइं हो साधु बिसासडो नगर धूताराय हो जी, बालहत्या करई ओ बीहई मही,
विरुआ विषनामे होजी पूत । अंत थुणीय मइ ओ अणगारा, जपतां जगि जय जयकारा,
सोलह उगणोत्तर आदि, श्री सुवधिनाथ प्रासादि । श्री वगडी नयर मझारि, श्री संघ तणइ आधारि,
जपता श्री ऋषिरास, मुझ सफल फली मनआस ।' सहजसागर के शिष्य विजयसागर की सम्मेतशिखर तीर्थमाला स्तवन आदि अन्य कई रचनायें प्राप्त हैं। शायद यह भी उन्हीं की रचना हो।
साधुकीति (उपाध्याय)-आप खरतरगच्छीय जिनभद्र सूरि की परंपरा में अमरमाणिक्य के शिष्य थे। आपने सं० १६२५ में तपागच्छीय आचार्य बुद्धिसागर को अकबर की सभा में शास्त्रार्थ में पराजित किया था। आप संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्यभाषाओं के ज्ञाता तथा कुशल प्रयोक्ता थे। संस्कत में आपने विशेषनाम माला, संघपट्टकवृत्ति, भक्तामर अवचूरी आदि कई रचनायें की हैं। मरुगुर्जर गद्य और पद्य में आपकी अनेक रचनायें उपलब्ध हैं । इनमें सप्तस्मरण बालावबोध (दीपावली सं०१६११) की रचना आपने बीकानेर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री कर्मचंद के पिता श्री संग्रामसिंह बच्छावत के आग्रह पर की थी। आपकी सत्तरभेदी पूजा (सं० १६१८, पाटण) का खरतरगच्छ १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १४२-१४३ (द्वितीय संस्करण, और
भाग ३ पृ० ९३८-३९ (प्रथम संस्करण)
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