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सहजरत्नवाचक
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अन्त
श्री जिनादिक प्रतिमा नमस्कार करी, सिद्धान्तनुश्रुतविचार काइंक, बोलीउ लिखू, भविक जीव जे संसइ पड्या छइ, तेहना सन्देह छेदवानइ काजइं, जे श्रुति सिद्धान्त स्यु कहीइं, अरिहंतना कह्या अर्थ, गणधारनां गूथ्यां सूत्र, तेहना भेद, श्री नंदीसूत्र थकी जांणीइं, ते आलावऊ संषेपइ लिखीइं छइ, विचारी जोयो। इम अनंता जीव द्वादशांगी आराधी मोक्ष पहुंता, अनेक पुहंचै छइ, अनन्ता मुक्ति जास्यइं, इम जाणी, सिद्धान्त नी आशातना टाली सूत्र सर्व सद्दवहीइ, सज्झायनु उद्यम करिवउ, अतलई तपनी आराधना, संषेपमात्र लिषी वली विशेष सूत्र अर्थना भाव प्रौछयो, अनइं सूत्रना अर्थ, नियुक्ति वृत्ति चूर्णि भाष्य पइन्ना प्रकरण जे बहुश्रुत परंपराई मानइ छइ, ते पुण मानवा ।' कुशलमाणिक गुरुणं, तस्स सीसस्स सहजकूशलेणं, भवियण बोहणत्थं, उद्धरियं सुअसमुदाऊ । जं जिणवयण विरुद्धं, सच्छंद बुद्धेण जं मजे रईयं, तं खमह संघ सव्वं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स ।
गुरु
सहजरत्नवाचक-अंचलगच्छीय धर्ममूर्ति के आप शिष्य थे। धर्ममूर्ति का प्रतिमालेख सं० १६२९, ४४ और ५४ का प्राप्त है। धर्ममूर्ति का जन्म सं० १५८२ में खंभात निवासी श्री हंसराज की पत्नी हांसल दे की कुक्षि से हुआ था। इन्हें सं० १६०२ अहमदाबाद में आचार्य और गच्छनायक पद मिला था। सं० १६७० में इनका देहावसान हुआ। इनके शिष्य सहजरत्न ने १६०५ कार्तिक शुक्ल १३ रविवार निधरारी ग्राम में 'वैराग्य विनति' की रचना की। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियां इस प्रकार हैं___ आज सकल मनोरथ मनतणा, भगतिइं गुण गाऊ जिण तणां ।
श्रीय कुंथनाथ देव अतिहि चंग, नींधरारि नयर छइ बहुअरंग। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १६६-१६७ (द्वितीय संस्करण) और
भाग १ पृ० ५९९-६०१, भाग ३ खण्ड २ पृ० १६०३ (प्रथम संस्करण)
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