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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दिए गये हैं। सागरशेष्ठि कथा को श्री देसाई ने भाग १ पृ० २८७ पर रत्नसार की रचना बताया था पर यह स्पष्ट हो चुका है कि यह रचना सहजकीर्ति की ही है।
जैसलमेर चैत्य प्रवाडी (७ गीत सं० १६७९) का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है -
साधु साधवी श्रावक श्रावी, श्री संघनइ परिवार रे माई, श्री जिनराज सूरीसर हरषइ, जैसलमेरु मझारि रे माई। चैत्र प्रवाहि करइ विधि सेती, वाजइ वाजिंत्र सार रे,
गावई गीत मधुरसर गोरी, खरतरगछ जयकार रे माई।' ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह में जिनराज सूरि सवैया के पश्चात् जिनराजसूरि गीतम् (श्री गच्छाधीश जिनराज सूरि गुरुगीतम्) नामक चौथी रचना सहजकीर्ति की है। इसमें ९ कड़ी है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ निम्नवत् हैं
श्री संघ सोभ बघारतउ रे लाल, श्री जिनराज मुनीश,
प्रतिपउ गुरु महिमंडलइ रे लाल, सहजकीरति आशीष ।' इसमें कुल १२ छंद हैं। जिनसिंह सूरि की वंदना करता हुआ कवि इस गीत में लिखता है
राउल भीम सभा भली रे लाल, जैसलमेर मझार, परवादी जीता जियइ रे लाल, पाम्यउ जयजयकार । ३
सहजकुशल(गद्यकार) - आप कुशलमाणिक्य के शिष्य थे। आपने स्थानकवासीमत (ढूढ़ियामत) के खंडनार्थ जैन अंग-उपांग आदि प्रमाणों पर आधारित एक रचना 'सिद्धान्तश्रुत हुंडी' नाम से हिन्दी गद्य में लिखी। इसके गद्य का नमूना देखने के लिए इसका आदि और अन्त उद्धृत किया जा रहा हैआदि नमिऊण जिणवराइ, सुयवियारेण किंचि बुछामि,
जे संसयंमि पडिया भवियजीया तंपि वुच्छेउं । १. जैन गुर्जर कविओ भाग २, पृ० ४०३-०४ ( प्रथम संस्करण ) और
भाग १ पृ० २८७, तथा ५२५-३६ औ' भाग ३ पृ० १०१६-२४ २. श्री जिनराज सूरि गीतम्--ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० १७४-१७६
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