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अनन्तकीर्ति - अभयचन्द
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इनसे पूर्व १६वीं शताब्दी में भी एक अन्य अनन्तहंस हो चुके हैं । वे तपागच्छीय लक्ष्मीसागर > हेमविमल की परम्परा में थे । उनकी रचनाओं - बारव्रतसंज्झाय और इलाप्राकार चैत्य परिपाटी (सं० १५७० से पूर्व लिखित) का विवरण प्रथम खण्ड में दिया जा चुका है ।
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अभयचन्द - (सं० १६४० से सं० १७२१) आप भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र की परम्परा में भट्टारक कुमुदचन्द्र के शिष्य थे । आपका जन्म हुंड़वंश में हुआ था । आपके पिता का नाम श्रीपाल और माता का नाम कोड़मदे था । सं० १६८५ में वारडोली नगर में आप भट्टारकगादी पर बड़ी धूमधाम से आसीन हुए। आपने मरु-गुर्जर प्रदेश में सघन विहार किया और अपनी वाक्शक्ति से प्रभावित करके अनेक लोगों को धर्म मार्ग पर लगाया । दामोदर, धर्मसागर, गणेश, देव और रामदेव आदि शिष्यों ने इनकी प्रशस्ति में अनेक रचनायें की हैं जिनसे इनके व्यक्तित्व का गुरुत्व तथा इनकी विद्वत्ता, प्रतिभा और लोकप्रियता का पता चलता है । इन्होंने संस्कृत और प्राकृत के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था । न्यायशास्त्र, अलंकार शास्त्र और नाट्यशास्त्र में भी आपकी अच्छी गति थी । अबतक आपकी दस रचनायें प्राप्त हैं । इनमें 'वासुपूज्य जी धमाल,' चन्दागीत और सूखड़ी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं । चन्दागीत कालिदास के मेघदूत की शैली पर लिखित एक लघु विरह काव्य है । इसमें राजुल अपना विरह सन्देश नेमिनाथ तक पहुँचाने के लिए चन्दा से विनती करती है । चार पंक्तियाँ नमूने के तौर पर प्रस्तुत हैं
" विनय करी राजुल कहे, चन्दा विनतडी अवधारो रे । उज्जतगिरि जाइ बीनवो चन्दा, जहाँ छे प्राण अधारो रे । विरहतणां दुख दोहिला चंदा ! ते किम मे सहो जाय रे । जल विना जेम माछली चंदा ते दुख मे बाय रे ।” इसकी भाषा में 'डी', रे आदि पुरानी प्रवृत्तियों के आदि गुर्जर के प्रयोग भी हैं जो इसे गुर्जर प्रधान हिन्दी
भाषा प्रमाणित करते हैं ।
१. हुंवड वंश विख्यात वसुधा श्रीपाल साधन तात, जायो जननीइ पतियशवन्तो कोड़मदे धनमात । रतनचन्द पाट कुमुदचन्द यति प्रेमे पूजो पाय, तास पाटि श्री अभयचन्द गोर दामोदर नित्य गुणगाय । (डा० कस्तूरचंद कासलीवाल - राजस्थान के जैन संत पृ. १४८ पर उद्धृत )
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साथ छे, जेम
( मरुगुर्जर )
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