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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के अलावा अरबी-फारसी के चलते शब्द भी मिलजुल गये हैं जैसे जोरु, हजूरी, काजी, मुल्ला, खलक, फकीर, हुक्म, पातशाह, मर्द, खूब आदि । तत्सम शब्दों में वृषभ, सुरतरु, पुरुष, श्रावक, शिष्य, औषधि, वैद्य, विमान, यौवन, पुण्य, महिषी, क्षमा आदि और तद्भवों में सोनार, साईं, भाखण, नयरी, आगि, हाथ आदि खुब प्रयुक्त हुए हैं । इनकी तुलना में चेला, हाली, उदरि आदि देशज शब्द कम प्रयुक्त हुए हैं। स्वरागम, स्वरलोप आदि के कारण परमाद, मारग और दुख, माल आदि शब्द भी मिलते हैं तो कहीं व्यञ्जन परिवर्तन या लोप के कारण सयल, न्यान, पिउ आदि शब्द भी प्रयुक्त हैं । पिउ शब्द पिता और प्रिय दोनों का बोधक होने से भ्रम उत्पन्न करता है। मरुगुर्जर में ऐसे शब्दों के बढ़ते प्रयोग के कारण अर्थभ्रम की गुञ्जायस काफी बढ़ गई थी। अकेले 'एक' के विभिन्न रूप पढम, प्रथम, पहिल उ, पहिला, इक, पहिलइ, एकल, पहली आदि मिलते हैं। समयसुन्दर के विशाल काव्यसाहित्य में ऐसे भ्रमोत्पादक शब्द हैं तो अवश्य पर अत्यल्प । सामान्य पाठक को अर्थग्रहण में सन्दर्भ का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। उनकी गद्यभाषा सरल और नित्य के बोलचाल की जनभाषा है।
शैली -महोपाध्याय समयसुन्दर के विशाल साहित्य में अनेक शैलियाँ हैं। संवाद, दृष्टान्त, व्याख्या शैलियों के अलावा सादृश्य विधान, चित्रात्मकता और लाक्षणिकता इनकी भाषा शैली की प्रमुख विशेषतायें हैं । इनका वर्णन-कौशल मनोहारी है । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं -प्रकृति वर्णन के अन्तर्गत वसंत और वर्षा वर्णन के उदाहरण देखिये । वसंत वर्णन
आंबा मर्या अतिभला, मांजरि लागासार,
कोयलकरे दुहकड़ा, चिहुंदिस भमरगुजार । वर्षा वर्णन -आयो वर्षाकाल, त्रिहुं दिसि घटा उमरी ततकाल ।
गडगडाट गहे गाजइ, जाणे नालि गोलाबाजइ । कालइ आभइ, बीजलि झबकइ, विरहिणी नाहीया द्रवकइ ।।
पपीहा बोलइ, वाणिया धान बखार खोलइ । इस गद्य कथा में पद्य जैसी तुकान्तता और यथार्थ वर्णन की मामिकता द्रष्टव्य है। आगे की पंक्तियों में प्रकृति का मानवीकरण
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