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समयसुन्दरमहोपाध्याय मिलते थे उनका इस दुष्काल ने भला किया। बारह वर्षीय इस दुष्काल की भयंकरता का हृदयद्रावक वर्णन इसमें है, यथा
बेटे मुक्या बाप, चतुर देता जे चांटी, भाई थुकी भइण, भइणिं पुनि मुक्यां भाई । अधिको ह्वालो अन्न, गई सहु कुटुम्ब सगाई, घरबार मुकी माणस घणा, परदेसई गया पाधरा।
समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, तोही न राख्या आधरा । गृहस्थों, साधुओं को भोजन मिलना कठिन हो गया, किन्तु शिष्यों की सुविधा हो गई।
लाघउ जतीए लाग, मूडीनइ माहइ लीधा,
हुती जितरी हुंस, तीए तितराहिज कीधा । आपका व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभाशाली, विद्वत्तापूर्ण और आध्यात्मिक था। इन्हें व्याकरण, कोष, काव्यशास्त्र, अलंकार आदि का गहन ज्ञान था। आपने संस्कृत, प्राकृत, प्राचीन हिन्दी (राजस्थानीगूजराती) और सिन्धी का अच्छा अध्ययन किया था। भाषाशास्त्र सम्बन्धी आपका ग्रन्थ 'रूपकमाला की व्याख्या' इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है। आप उच्चकोटि के भक्त थे। आपने आदर्श पुरुषों, तीर्थंकरों के प्रति अपनी श्रद्धाभक्ति व्यक्त की है। शर्बुजयतीर्थ के प्रति वे लिखते हैं-'क्यों न भये हम मोर विमलगिरि' रसखान की तरह वे उस गिरि का पक्षी, झरना, वृक्ष कुछ होकर वहीं रहना चाहते हैं। इनकी भक्ति में आलम्बन कृष्ण के स्थान पर जिन भगवान हैं किन्तु शेष बातें वैसी ही हैं। सूरदास की तरह ऋषभ के बाल रूप के प्रति वात्सल्य भाव की अभिव्यक्ति करते हुए लिखते हैं
आवो मेरे बेटा दूध पिलावां,
वही बेड़ा गोदी में सुख पावा। तुलसीदास की तरह 'नवकंजलोचन' के तर्ज पर वे लिखते हैं--
ललित वयन गुरु ललितनयण गुरु,
ललितरयण गुरु ललित मती रे । साम्प्रदायिक उदारता, सर्वभूतेषु आत्मवत् दृष्टि, अहिंसा परमधर्म के प्रति प्रगाढ़ निष्ठी आपकी विशेषतायें हैं। आपने सं० १७०३ में ९० वर्ष की आयु भोग कर संलेखना द्वारा शरीर त्याग किया।
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