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मरु-गुजर जन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रकाश डाला है। इन्हें बाचनाचार्य, उपाध्याय, महोपाध्याय आदि उपाधियाँ इनकी विद्वत्ता और सृजशीलता के कारण ही प्राप्त हुई थीं। __ आपका जन्म राजस्थान के सांचौर नामक स्थान में सं० १६१० में हुआ था। पोरवालवंशीय रूपसिंह (रूपसी) इनके पिता तथा लीला देवी इनकी माता थीं। प्रायः १८-२० बर्ष की अवस्था में इन्होंने जिनचन्द्र सुरि से दीक्षा ली थी। इनके विद्यागुरु सकलचन्द्र गणि का इनकी दीक्षा के कुछ वर्ष बाद ही देहावसान हो गया था। इन्होंने खरतरगच्छ पट्टावली और अष्टलक्षी नामक ग्रन्थों में अपनी गुरुपरंपरा बताई है। इनकी शिक्षा अधिकतर मानसिंह या महिमराज अथवा जिनसिंह सूरि और समयराज के सान्निध्य में हुई। मम्मट के काव्यप्रकाश पर आधारित प्रसिद्ध साहित्य शास्त्रीय ग्रन्थ भावशतक की रचना इन्होंने सं० १६४१ में ३०-३१ वर्ष की अवस्था में ही की थी। इस समय तक इन्हें गणि की उपाधि भी मिल चुकी थी। इनकी दीक्षा सं० १६२८ के लगभग, गणि पद सं० १६४०, वाचनाचार्य पद सं० १६४९, उपाध्याय पद सं० १६७१ और महोपाध्याय पद सं० १६८० में प्राप्त हुआ था।
आप मानसिंह (दीक्षानाम महिमराज) की अगुवाई में अन्य छह साधओं के साथ भयंकर गर्मी में पदयात्रा करके लाहौर गये थे। सं० १६४९ में अकबर काश्मीरविजय के लिए प्रयाण करके राजा रामदास की बाटिका में (लाहौर) रुका था। वहाँ 'राजा नो ददते सौख्यम्' पंक्ति की हजारों प्रकार से व्याख्या करने वाली अष्टलक्षी रचना तत्काल बनाकर आपने अकबर और उसके पार्षदों को अपनी अलौकिक प्रतिभा से चकित कर दिया था। वहीं आपको वाचनाचार्य और महिमराज को आचार्य-पद प्राप्त हुआ था। इस घटना का विवरण इनकी 'जिनसिंह सूरि सपादाष्टक' नामक रचना में मिलता है। आपने सिन्ध, पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और गुजरात आदि प्रान्तों में खूब विहार किया था, अनेक लोगों को जैनधर्म का मर्म समझाया, अनेक शिष्य बनाये किन्तु वृद्धावस्था में शिष्यों ने साथ नहीं दिया। कवि ने लिखा है-संतान करमि हुआ शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पाये उ सुक्ख । सं० १६८७ में भयंकर दुष्काल पड़ा था। इस पर आधारित 'सत्या सिया दुष्काल वर्णन छत्तीसी' आपकी रचना बड़ी तथ्यपूर्ण एवं मार्मिक है। उस दुष्काल में बाप ने बेटी छोड़ दी, बेटे ने वृद्ध बाप को त्याग दिया लेकिन जिन मुनियों को चेले नहीं
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