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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गुरुपरम्परा का वर्णन करते हुए कवि ने.जिनचंदसूरि और अकबर की भेंट का भी उल्लेख किया है
अ गुरु च उसठमइ पाटइ वीर थी रे, गच्छनायक जिणचन्द्र, इण कलिकालइ गोयम सामी सारिखा, दीपइ तेज दिणंद । बबरवंश नभोमणि श्री श्री अकबरु रे, दीन दुनी पतिसाह,
जसु गुण संतति संतनमुख थकी रे, तेडया अधिक उछाह । इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया हैसंवत फडवी (पृथ्वी) बाण ऋतु रस वछरइ रे,
बीकानेर मझारि, रायसिंघ राजेसर राजइ रच्यउ रे, सांभलता सुखभार । आपकी प्रसिद्ध रचना जिनचन्द्रसूरि निर्वाणरास (७० कड़ी सं० १६७० के पश्चात्) जैन युग पु० ४ अंक १ पृ० ६३-६६ और ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ७९-८७ में प्रकाशित है। इसका आदि देखिये ---
गुणनिधान गुणपाय नमी, वागवांणि आधारि, युगप्रधान निरवाणनी, महिमा कहिसि विचारि । युग प्रधान जंगमजति, गिरुआ गुणे गंभीर, श्री जिनचंद्र सुरिंदवर घुरि घोरी धर्मवीर । संवत पनर पचानूये रीहडकुल अवतार,
श्रीवंत सिरियादे धर्मो सुत सुरताण कुमार । इसे युगप्रधान निर्वाणरास भी कहा जाता है। इस रास में "जिनचंद्र सूरि के जन्म से लेकर उनके शरीरान्त पर्यन्त की प्रमुख घटनाओं का वर्णन है। अकबर को प्रतिबोध, तीर्थ यात्रियों को दरशणियां दण्ड से मुक्ति दिलाना और अन्त में से० १६७० के आसूमास में 'अणसन' द्वारा शरीर त्याग करने का वर्णन किया गया है । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं --
युगवरना गुण गावता हो नवनवरंग विनोद,
अहनी आसा फले हो जये समयप्रमोद । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ८९७-९९ (प्रथम संस्करण) और भाग २
पृ० २७८ (द्वितीय संस्करण) २. ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह पृ० ७९-८६
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