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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आप पद्य के अलावा गद्य में भी रचना करते थे। 'गुणस्थान क्रमारोह बालावबोध सं० १६७८ का उल्लेख श्री देसाई ने 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' में किया है, लेकिन इसके गद्य का नमूना नहीं दिया है।
इस प्रकार श्रीसार १७वीं शताब्दी के खरतरगच्छीय लेखकों में श्रेष्ठ कवि और गद्यकार हो गये हैं।
श्रीसुन्दर-आप खरतरगच्छीय आचार्य जिनचन्द्र सूरि की परंपरा में हर्षविमल के शिष्य थे। आपने सं० १६६६ में अगड़दत्त रास लिखा।' इसके अतिरिक्त आपका लिखा 'क्षुल्लककुमार रास' तथा कुछ स्फुट गीत भी उपलब्ध हैं। अगड़दत्तरास (२८४ कड़ी, सं. १६६६ कार्तिक एकादशी, शनिवार) का आदि
परमपुरुष परमेष्ठि जिन प्रणमु गउड़ी पास,
सुरतरु सुरमणि जिम सदा, सफल करइ सवि आस । गुरुपरंपरा-श्री जिनदत्त जिनकुशल गुरु खरतरगच्छ नरेस,
सेवकजन सानिधिकरण, आवइ पुरत विशेष । श्री अकबर प्रति बोधतां प्रगडि उपुण्यं पडूर,
विजयमान विद्या अधिक, जुगवर जिनचंदसूरीद । इसके पश्चात् जिनसिंह सूरि की स्तुति के बाद अपने गुरु हर्षविमल का कवि ने सादर स्मरण किया है। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
स्वामिवदन गुण रस रसा मे संवत काति मासि,
शनि अकादसि अ, तो पण वड सुख वासि । यह रचना उत्तराध्ययन पर आधारित है ।
ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में 'जिनचंदसूरि गीतानि' शीर्षक के अन्तर्गत श्रीसुन्दर के दो गीत भी संकलित हैं। एक राग मल्हार में आबद्ध ५ कड़ी और दूसरा ११ कड़ी का है। गीतों की क्रम संख्या २
१. श्री अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ८२ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ०११९-१२० (द्वितीय संस्करण) और ___ भाग ३ पृ० ९१५-१६ (प्रथम संस्करण)
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