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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गया। राजसमुद्र को तब गच्छनायक पद देकर उनका नाम जिन राजसूरि रखा गया। आपने राजसमुद्र और जिन राजसरि नाम से पर्याप्त साहित्य लिखा है जिसका परिचय यथा स्थान दिया गया है। शाहजहाँ, राजागजसिंह और अशरफ खां आदि आपके प्रशंसक थे। आपकी प्रमुख रचनाओं में शालिभद्र चौपइ, गजसुकुमाल चौपइ, कर्मबत्तीसी, शीलछत्तीसी, बीसी-चौबीसी आदि का उल्लेख किया गया है।
जिन राजसूरिरास-प्रस्तुत रास की ९ कड़ियां खंडित हैं, दसवीं इस प्रकार है
अति सरवर सुन्दर अति भली सोहई घणी धम्रसाल,
जिह आवी व्यवहारिया, धरम करई सुविशाल । इसमें ३२४ छन्द और ११ ढाल हैं। श्रीसार ने जिन राजसूरि की शोभा का वर्णन करते हुए लिखा है
नयन कमलनी परि अणियाली, सोहइ अधर जाणइ परवाली। करइ हाथ सुं लटका मटका,
बोलइ वचन अमी रा गटका ।' रचनाकाल -- सोहइ शहर सदा सेत्रावउ, मरुधर मांहि मल्हायउ,
संवत सोल इक्यासी वरसइ, अह प्रवन्ध बणायउ री। आषाढ़ा बदि तेरसि दिवसइ, सुरगुरु वार कहायउ,
श्री गच्छनायक गुण गावतां, मेहपिण सबल उ आपउरी। आनन्द श्रावक संधि-.(१५ ढाल, २५२ कड़ी सं० १६८४, पुष्करणी) आदि- बर्द्धमान जिनवर चरण, नमतां नवनिधि होइ,
सन्धि करुं आनन्दनी, सांभलिज्यो सहु कोइ । रचनाकाल – संवत दिशी सिद्धि रस ससि तिण पुरीमइ कीधी च उमासि
से संबंध कीथौ रलियामण उ, सुणतां थाइ उल्लास । 'मोतीकपासिया संवाद'--(सं० १६८९ फलौदी) यह रचना संवाद रूप में है। इसका आदि१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० १५०-१७१ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २१३-२१४ (द्वितीय संस्करण)
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